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पुद्गल-कोश .२ भमरेणं भंते ! कइवण्णे पुच्छा । गोयमा ! एत्थण दो नया भवन्ति, तंजहा-णिच्छइयणएय, वावहारियणएय । वावहारियणयस्स कालए भयरे, णिच्छइणयस्स पंच वण्णे जाव अटफासे पण्णत्ते।
- भग० श १८ । उ ६
व्यवहार नय कर अपेक्षा भ्रमण काला है पर निश्चय नय की अपेक्षा उसमें पांच वर्ण, दो गंध, पांच रस व आठ स्पर्श होते हैं ।
विविध अपेक्षा से पुद्गल और वर्णादि
सुय पिच्छेणं भंते ! कइवण्णे० पण्णते? एवं चेव णवरं वावहारियणयस्स णोलए सुअपिच्छे, णेच्छइणयस्स पयस्स से पंच वण्णे, सन्तं चेव ।
--भग० श १८ । उ ६ शुक पिच्छि -तोते के पंख व्यवहार नय की अपेक्षा नील है तथा निश्चय नय की अपेक्षा पांच वर्ण, दो गंध, पांच रस तथा आठ स्पर्श वाली है।
छरियाणं भंते ! पुच्छा ? गोयमा ! एत्थ णं दो नया भवन्ति, तंजहा णिच्छइयणएय वावहारियणएय । वावहारियणयस्स लुक्खा छारिया, णच्छ इणयस्स पंच वण्णे जाव अट्ठ फासे पण्णत्ते ।
-भग० श १८ । उ ६ व्यवहार नय की अपेक्षा राख रूक्ष है पर निश्चय नय की अपेक्षा उसमें पांच वर्ण, दो गंध, पांच रस तथा आठ स्पर्श होते हैं । स्कंध पुद्गल और करण ___ x x x। यद्यपि शरीरा-ऽभ्रन्द्रधनुरादौ करणसंज्ञा नास्ति तथापि प्रयोगविलसाजनितकरक्रिया विद्यते, अतस्तदपेक्षमेतेषां करणत्व न विरुध्यत इति । तत्राजीवद्रव्याणां विरसाकरणं साद्यनादि च भवति । तत्र धर्मा-ऽधर्मास्तिकाय-नभसा संघातनाकरणं प्रदेशानां परस्परं संहत्यवस्थानरूप करणमनादिरूपं विज्ञ यमिति ।xxx। ननु कृतिनिर्वत्तिर्वस्तुनः करणमुच्यते, तच्च साद्य व भवति, घट-कट-शकटादिकरणवत् x x x।
-विशेभा० गा० ३३०८-९ । टीका
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