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पुद्गल-कोश
५४३ छद्मस्थ को निर्जरित पुद्गलों का ज्ञान
छउमत्थे णं भंते ! मणुस्से तेसि निज्जरापोग्गलाणं किंचि आणत्तं वा णाणतं वा० ? एवं जहा इदिय-उद्दसए पढमे जाव-वेमाणिया, जाव तत्थ णं जे ते उवउत्ता ते जाणंति, पासंति, आहारेति, से तेण?णं निवखेवो भाणियम्वो ति न पासंति, आहारेति ।
-भग० श १८ । उ ३ । सू ५ ।
छद्मस्थ मनुष्य उन निर्जरा पुद्गलों के पारस्परिक पृथक् भाव और अपृथक् भाव ( वर्णादि कृत नाना भाव ) को- इनमें जो उपयोग युक्त है, वे उन पुद्गलों को जानते-देखते हैं और आहार के रूप में ग्रहण करते हैं। यावत् जो उपयोग रहित है वे उन पुद्गलों को जानते-देखते नहीं, परन्तु आहार रूप में ग्रहण कराते हैं ।
नोट-जो विशिष्ट अवधिज्ञानादि उपयोग युक्त है वे सूक्ष्म कार्मण पुद्गलों को जानते-देखते हैं, परन्तु जो विशिष्ट अवधिज्ञानादि उपयोग रहित हैं- वे सूक्ष्म कार्मण पुद्गलों को नहीं जानते. नहीं देखते हैं ।
ओज आहार, लोम आहार और प्रक्षेप आहार- इन तीन प्रकार के आहारों में से यहाँ ओज आहार की ग्रहण समझना चाहिए। क्योंकि कार्मण शरीर द्वारा पुद्गलों को ग्रहण करना ओज आहार कहलाता है यही आहार यहाँ संभावित है । त्वचा के स्पर्श से लोम आहार होता है और मुख में डालने से प्रक्षेप आहार होता है। विविध अपेक्षा से पुद्गल और वर्णावि
फाणियगुले णं भंते ! कइवण्णे, कइगंधे, कइरसे, कइफासे पण्णते ?
२ गोयमा! एत्थ णं दो गया भवंति, तं जहा-णिच्छइयणए य वावहारियणए य। वावहारियणयस्स गोड्डे फाणियगुले, णेच्छइयणयस्स पंचवण्णे, दुगंधे, पंचरसे, अट्ठफासे पण्णत्त ।
- भग० श. १८ । उ ६ निश्चय नय वस्तु के तात्विक ( वास्तविक ) अर्थ का प्रतिपादन करता है और व्यवहार नय केवल लोकव्यवहार का ।
व्यवहार नयकी अपेक्षा फाणित प्रवाही गुड़, मधुर कहा जाता है पर निश्चय नय की अपेक्षा उसमें पांच वर्ण, दो गंध, पांच रस तथा आठ स्पर्श है।
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