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पुद्गल-काश टीका-इह लेष्ट्वादिकं पुद्गलं क्षिप्तं गच्छन्तं क्षेपकमनुष्यस्तावद् ग्रहीतु न शक्नोतीति दृश्यते, देवस्तु किं शक्नोति ? येन शक्रेण वज्र क्षिप्तं संहृतं च।
___ महाऋद्धि वाला देव, पहले फेंके हुए पुद्गल को उसके पीछे जाकर ग्रहण कर सकता है क्योंकि जब पुद्गल फेंका जाता है तब प्रथम उसकी गति शीघ्र होती है
और पश्चात् उसकी गति मंद हो जाती है। महाऋद्धि वाला देव पहले भी और पीछे भी शीघ्र और शीघ्रगति वाला होता है, त्वरित और त्वरिततर गति वाला होता है, अतः देव फेंके हुए पुद्गल के पीछे जाकर उसे ग्रहण कर सकता है। उदाहरणत: जैसे- शकेन्द्र ने अपने द्वारा अति तीव्र निक्षिप्त वज्र को उसके पीछे दौड़कर पकड़ लिया था।
१२.०८ ०४ गुरुगति-प्रणोदनगति-प्राग्भारगति
अट्ठ गइओ पन्नत्ताओ, तंजहा–णिरयगई, तिरियगई, जाव (मणुयगई, देवगई) सिद्धिगई, गुरुगई, पणोल्लणगई, पन्भारगई।
ठाण० स्था ८ । उ ३ । सू ६२८ टीका-'गुरुगई' त्ति भावप्रधानत्वान्निर्देशस्य गौरवेण-ऊधिस्तिर्यग्गमनस्वभावेन या परमाण्वादीनां स्वभावतो गतिः सा गुरुगतिरिति, या तु परप्रेरणान् सा प्रणोदनगतिर्वाणादीनामिव, या तु द्रव्यान्तराक्रान्तस्य सा प्राग्भारगतिः यया-नावादेरधोगतिरिति ।
पुद्गल की गति तीन प्रकार की होती है-गुरुगति, प्रणोदनगति तथा प्राग्भारगति ।
जिन ( पुदगलों) का ऊपर, नीचे तथा तिरछे गमन करने का स्वभाव हो उसे गुरुगति कहते हैं । यथा-परमाणु आदि की स्वभावतः ऐसी गति होती है ।
दूसरे की प्रेरणा से जो गति होती है उसे प्रणोदन गति कहते हैं-यथा-वाण आदि की गति परप्रेरणा से होती है ।
द्रव्यान्तर से आक्रांत होने पर जिसकी गति होती है उसे प्राग्भारगति कहते हैं । यथा -- नाव आदि को द्रव्यान्तर से आक्रांत होने पर ओघगति होती है।
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