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पुद्गल-कोश
२२३ (ञ) पुद्गलाश्च परमाणुप्रभृतयः सर्वलोक इति ।
-प्रथम० श्लो २१३ । टीका (ट) सूक्ष्मः सूक्ष्मतरेर्लोकः स्थूल: स्थूलतरैश्चितः। अनतः पुद्गलैश्चिनैः कुभो धूमैरिवाभितः॥
-पोसा. अधि २ । श्लो २० पुद्गल सर्वत्र लोक में है, अलोक में नहीं है। पुद्गल लोक में सर्वकाल मेंअतीत-वर्तमान-भविष्यत् में होता है। सूक्ष्मपुद्गल, बादरपुद्गल, अनंतानंत विविधतावाले पुद्गलों से लोक सर्वत्रगाढा-खचाखच भरा हुआ है। अतः पुद्गल को लोक-प्रमाण कहा जाता है ।
लोक के पूर्व चरमांत में, दक्षिण चरमांत में, पश्चिम चरमांत में, उत्तर चरमांत में, ऊपर के चरमांत में, नीचे के चरमांत में पुद्गल के स्कन्ध, देश, प्रदेश तथा परमाणु-चारों भेद पाये जाते हैं।
रत्नप्रभा पृथ्वी यावत् सातवीं पृथ्वी तक के पूर्व चरमांत में, दक्षिण चरमांत में, पश्चिम चरमांत में, उत्तर चरमांत में, ऊपर के चरमांत में, नीचे के चरमांत में पुद्गल के स्कंध-देश-प्रदेश-परमाणु -- चारों भेद पाये जाते हैं ।
सौधर्म देवलोक यावत् अच्युत देवलोक तक, ग्रंवेयक विमान, अनुत्तर विमान तथा ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी के पूर्व चरमांत में, दक्षिण चरमांत में, पश्चिम चरमांत में, उत्तर चरमांत में, ऊपर के चरमांत में, नीचे के चरमांत में पुद्गल के स्कंध-देशप्रदेश-परमाणु-चारों भेद पाये जाते हैं। •२ पुद्गल लोक में सर्व दिशाओं में सर्वत्र है।
(क) लोगागासे णं भंते ! कि जीवा, जीवदेसा, जीवप्पएसा, अजीवा अजीवदेसा, अजीवप्पएसा ? x x x। जे अजीवा ते दुविहा पन्नत्ता, तंजहा–रूवी य अरूवी य, जे रूवी ते चउविहा पन्नत्ता, तंजहा- खंधा, खंधदेसा, खंधपएसा, परमाणुपोग्गला।
-भग० श २ । उ १० । सू ६६ । पृ० ४३५
-भग० श २० । उ २ । सू २ लोए णं भंते ! कि जीवा ? जहा बिइयसए अत्थिउद्देसए लोगागासे।
-भग० श ११ । उ १० । सू १३ । पृ. ६३१
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