________________
पुद्गल-कोश
२५९
अर्थात् आकाशास्तिकाय, जीव और अजीव द्रव्यों का भाजन भूत ( आश्रय रूप ) है अर्थात् आकाश से जीव और अजीव द्रव्यों के 'अवगाह' की प्रवृत्ति होती है । जैसा - गाथा में कहा है
अर्थात् - एक परमाणु से पूर्ण या दो परमाणु से पूर्ण एक आकाश प्रदेश में सौ परमाणु भी समा सकते हैं । सौ करोड़ परमाणुओं से पूर्ण, एक आकाश प्रदेश में हजार करोड़ परमाणु भी समा सकते हैं । चूंकि आकाशास्तिकाय का लक्षण अवगाहना रूप है |
- २४ पुद्गलों का ज्ञान
-१ विषय का ग्रहण- ज्ञान
(क) रूप का ग्रहण चक्षुरिन्द्रिय द्वारा होता है ।
चक्खुस्स रूवं गहणं वयंति x x x
रुवस्स चंक्खु गहणं वयंति । चक्खुस्स रूवं गहणं वयंति
—उत्त० अ ३२ । गा २२ पुर्वाधं, २३
रूप चक्षुरिन्द्रिय का ग्रहण (विषय) है । चक्षु को रूप का ग्राहक कहते हैं और रूप का चक्षु का ग्राह्य कहते हैं ।
(ख) शब्द का ग्रहण श्रोत्रेन्द्रिय द्वारा होता है ।
सोयरस सद्दं गहणं वयंति x x x 1 सद्दस्स सोयं गहणं वयंति, सोयस्स सद्दं गहणं वयंति ।
- उत्त• अ ३२ । गा ३५-३६
श्रोत्रेन्द्रिय को शब्द का ग्राहक
शब्द को श्रोत्रेन्द्रिय का ग्राहय विषय कहते हैं । कहते हैं और शब्द को श्रोत्रेन्द्रिय का ग्राहय कहते हैं ।
(ग) गंध का ग्रहण घ्राणेन्द्रिय द्वारा होता है । घाणस्स गंध गहणं वयंति
गंधस्स घाणं गहणं वयंति xxx घाणस्स गंधं गहणं वयंति ।
Jain Education International
- उत्त० अ ३२ । गा ४८-४९
। घ्राणेन्द्रिय को गंध का ग्राहक
गंध को घ्राणेन्द्रिय का ग्राहय (विषय) कहते कहते हैं और गंध को घ्राणेन्द्रिय का ग्राहय कहते हैं ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org