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पुद्गल-कोश टीका-चउहीं' त्यादि, व्यक्तं, परमन्येषां गतिरेव नास्तीति जीवा य पुग्गला ये' त्युक्तम्, 'नो संचाऐंति' न शक्नुवन्ति नालं 'बहिय' त्ति 'बहिस्ताल्लोकान्तात् अलोके इत्यर्थः, गमनतायै-गमनाय गंतुमित्यर्थः, गत्यभावेनलोकान्तात् परतस्तेषां गतिलक्षणस्वभावाभावादधो दीपशिखावत्, तथा निरुपग्रहतया धर्मास्तिकायाभावेन तज्जनितगत्युपष्टम्भाभावात् गन्न्यादिरहितपंगुवत्, तथा रूक्षतया सिकतामुष्टिवत् लोकान्तेषु हि पुद्गला रूक्षतया तथा परिणमन्ति यथा परतो गमनाय नालंxxx। लोकानुभावेन-लोकमर्यादया विषयक्षेत्रादन्यत्र मातमण्डमंडलवदिति ।
पुद्गल की गति लोक के बाहर नहीं होती है। इसके चार कारण बताये गये हैं, यथा-(१) गति अभाव, (२) साहाय्य अभाव, (३) रूक्षता और (४) लोकानुभाव-लोकमर्यादा।
पुद्गल लोकांत से बाहर अर्थात् अलोक में गमन करने के लिए समर्थ नहीं है क्योंकि गति का अभाव है ; लोकांत से आगे गतिलक्षण स्वभाव का अभाव है, जैसे-दीप शिखा का नीचे गमन नहीं हो सकता है वैसे ही पुद्गलों का अलोक में गमन नहीं हो सकता है ।
निरुपग्रहपन से- अलोक में धर्मास्तिकाय का अभाव है अतः निरपेक्ष अर्थात् सहायक का अभाव होने के कारण पुद्गल का गमन अलोक में नहीं हो सकता है। ___रूक्षता के कारण लोक में गति का अभाव देखा जाता है, यथा-बालुमुष्टिका । उसी प्रकार पुद्गल लोकांत में जाकर रूक्ष रूप से इस प्रकार परिणमन करता है जिससे लोक से आगे गति करने में समर्थ नहीं रहता है ।
लोकमर्यादा ऐसी है जिससे पुद्गल अलोक में नहीं जा सकता है। जिस प्रकार सूर्यमंडल लोकमर्यादा के कारण अपने क्षेत्र को छोड़ नहीं सकता है । १२.०८.०७ गति प्रतिघात
तिविहे पोग्गलपडिघाए पन्नत्ते, तंजहा–परमाणुपोग्गले परमाणुपोग्गलं पप्प पडिहणिज्जा, लुक्खत्ताए वा पडिहणिज्जा, लोगंते वा पडिहणिज्जा।
__-ठाण० स्था ३ । उ ४ । सू २११ टीका-पुद्गलानाम् अण्वादीनां प्रतिघातो-गतिस्खलनं पुद्गलप्रतिघातः, परमाणुश्चासौ पुद्गलश्च परमाणुपुद्गलः स तदन्तरं प्राप्य प्रतिह
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