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पुद्गल-कोश
१७५ (घ) धम्माइ परिणामियभावे खंधा उदइए वि।
-कर्म० भा ४ । गा ६९ । उत्तरार्ध टीका- x x x “खंधा उदए वि" ति 'स्कन्धा' अनंत-परमाण्वात्मका न तु केवलाणवः, तेषां जीवेनाऽग्रहणात्, 'औदयिकेऽपि' औदयिकभावेऽपि, न तु केवलं पारिणामिक इत्यपिशब्दार्थः। तथाहि-शरीरादिनामोदयजनित औदारिकादिशरीरतया औदारिकादीनां स्कंधानामेवोदव इति भावः। उदय एवौदयिक इति व्युत्पत्तिपक्षे तु कर्मस्कंधलक्षणेष्वजीवेष्वोदयिकभावो भवतीति भावः।
स्कंध पुद्गल में उदय भाव भी होता है। अनंत परमाणुओं से बने हुए स्कंधों में भी उदय भाव होता है।
परमाणु, संख्यातप्रदेशी स्कंध, असंख्यातप्रदेशी स्कंध में उदय भाव नहीं होता है क्योंकि जीव के द्वारा इनका ग्रहण नहीं होता है। कुछ अनंतप्रदेशी स्कंधों का भी जीव के द्वारा ग्रहण नहीं होता है। अतः परमाणु, संख्यातप्रदेशी स्कंध, असंख्यातप्रदेशी स्कंध तथा अग्रहणीय अनंतप्रदेशी स्कंधों में उदय भाव नहीं होता है।
अस्तु अनंतप्रदेशी स्कंध पुद्गल में केवल पारिणामिक भाव ही नहीं होता है, औदयिक भाव भी होता है। शरीरादि नामकर्म के उदय से जनित औदारिकादि शरीर रूप में परिणत-औदारिकादि स्कंधों का उदय होता है, अतः उनमें उदयभाव कहा गया है । यहाँ व्युत्पत्ति की अपेक्षा औदयिक भाव का कथन है क्योंकि कर्मस्कंधों का लक्षण-'उदय' है अतः अजीव-पुद्गल में भी औदयिक भाव कहा जाता है।
'१२१४ पुद्गल और पर्याय संख्या .१ काय स्थिति वाले पुद्गल और पर्याय संख्या (क) एक समय यावत् असंख्यात समय स्थिति वाले पुद्गल और पर्याय
संख्या एगसमयठिईयाणं पुच्छा। (केवइया पज्जवा पन्नता) गोयमा ! अनंता पज्जवा पन्नत्ता। से केण?णं भंते ! एवं बुच्चइ ? गोयमा !
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