________________
पुद्गल-कोश पुद्गल के दो भेद होते हैं, यथा-बद्धपार्श्वस्पृष्ट पुद्गल तथा नोबद्धपार्श्वपृष्ट पुद्गल ।
टीका–पार्श्वन स्पृष्टा देहत्वचा छ प्ता रेणुवत्पार्श्वस्पृष्टास्ततो बद्धाःगाढतरं श्लिष्टाः तनौ तोयवत् पार्श्वस्पृष्टाश्च ते बद्धाश्चेति राजदन्तादित्वाद् बद्धपार्श्वस्पृष्टाः, आह च
'पुढे रेणु व तणुमि बद्धमप्पीकयं पएसेहि' ति, एते च घ्राणेन्द्रियादिग्रहणगोचराः, तथा नो बद्धाः किन्तु पार्श्वस्पृष्टा इत्येकपदप्रतिषेधः श्रोत्रेन्द्रियग्रहणगोचराः, यत उक्तम् –पुढे सुणेइ सद्द रूवं पुण पासई अपुट्ठ तु । गंधं रसं च फासं च बद्धपुढे वियागरे। त्ति, उभयपदनिषेधे श्रोत्राद्यविषयाश्चक्षुविषयाश्चेति, इयमिन्द्रियापेक्षया बद्धपार्श्वस्पृष्टता पुद्गलानां व्याख्याता, एवं जीवप्रदेशापेक्षया परस्परापेक्षया च व्याख्येयेति ।
शरीर की चमड़ी से रज की तरह स्पशित किये हुए-पार्श्वस्पृष्ट, उनसे बद्ध हुए-शरीर में पानी की तरह अतिशय रूप में मिले हुए ; पार्श्वस्पृष्ट रूप बंधे हुए-बद्धपार्श्वस्पृष्ट पुद्गल ।
यहाँ राजदंतादिगण में पठित होने से 'बद्ध' शब्द का पूर्व प्रयोग किया गया हैकहा है___ स्पृष्ट-शरीर में रज की तरह स्पर्श किये हुए हैं और बद्ध-प्रदेशों के द्वारा स्वयंकृत हैं अर्थात् उसके साथ मिले हुए हैं। ये बद्धपार्श्वस्पृष्ट पुद्गल घ्राणेन्द्रियादि के ग्रहणगोचर हैं तथा नोबद्धा-नहीं बंधे हुए हैं परन्तु पार्श्वस्पृष्ट अर्थात् बद्ध पद के निषेधवाले पुद्गल-श्रोत्रेन्द्रिय के ग्रहणगोचर हैं। आवश्यक सूत्र में कहा गया है
श्रोत्रेन्द्रिय स्पृष्ट शब्द को सुनती है, चक्षुरिन्द्रिय अस्पृष्ट रूप को देखती है, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, स्पर्शेन्द्रिय क्रमशः बद्धस्पृष्ट गंध, रस, स्पर्श को जानती है। बद्धस्पृष्ट और पार्श्वस्पृष्ट – इन दो पदों के निषेध में श्रोत्रादि इन्द्रियों का ( उक्त पुद्गल ) विषय नहीं होता है परन्तु चक्षुरिन्द्रिय का विषय होता है।
इन्द्रिय की अपेक्षा-बद्धपार्श्वस्पृष्टता रूप पुद्गलों की व्याख्या की गई है। इसी प्रकार जीव के प्रदेश की अपेक्षा और अन्यान्य की अपेक्षा व्याख्या करने योग्य है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org