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पुद्गल-कोश नियत प्रदेश अवगाहना में अक्रिया-अगमन रूप क्रिया में नियन्त्रित जो क्षेत्रकाल है वही एक क्षेत्रावस्थान काल है। अवगाहना और अक्रिया का सदभाव ही क्षेत्रकाल माना जाता है। उपयुक्त व्यतिरेक में सत्ता नहीं रहती है क्योंकि अवगाहना काल क्षेत्र मात्र में नियत नहीं रहता है चूंकि क्षेत्रकाल के अभाव में भी अवगाहना काल रहता है।
विश्लेषण- तात्पर्य यह है कि जिस समय पुद्गल की किसी प्रकार की-अमुक जाति की अवगाहना होती है अर्थात् वे पुद्गल स्वयं निष्क्रिय ( हलन-चलन क्रिया से रहित ) होते हैं तभी उन पुदगलों का क्षेत्रावस्थान नियत होता है और यदि वैसा नहीं होता है तो उनकी किसी भी प्रकार की-अमुक जाति की अवगाहना नही होती है और वे पुद्गल निष्क्रिय नहीं होते तो उन पुद्गलों का क्षेत्रावस्थान संभव नहीं होता है। जब पुद्गलों का क्षेत्रावस्थान-अवगाहना और निष्क्रियता के अधीन है तब उससे विपरीत अर्थात अवगाहना क्षेत्रमात्र में नियत नहीं है क्योंकि क्षेत्र और काल के अभाव में अवगाहना रहती है।
- जिस कारण से विवक्षित क्षेत्र में तथा विवक्षित क्षेत्र से इतर क्षेत्र में वही पूर्वोक्त क्षेत्र संबंधी अवगाहना होती है अर्थात् एक क्षेत्र में रहा हुआ पुद्गल दूसरे क्षेत्र में जाने पर भी उसकी वही अवगाहना होती है इसलिए क्षेत्रस्थानायु की अपेक्षा अवगाहनास्थानायु असंख्यातगुण होती है । अब द्रव्यस्थानायु का विचार किया जाता है :
संकोअविकोएण व, उवरमिआएऽवगाहणाएवि ।
तित्तिअमित्ताणं चिअ, चिरंपि दव्वाणऽवत्थाणं ॥६॥ अभयदेवसूरि टीका-संकोचेन, विकोचेन चोपरतायाम् अपि अवगाहनायां यावन्ति द्रव्याणि पूर्वमासन् तावतामेव चिरमपि तेषाम अवस्थानं संभवति। अनेनाऽवगाहनानिवृत्ती अपि द्रव्यं न निवर्तते इत्युक्तम्, अथ द्रव्यनिवृत्तिविशेषेऽवगाहना निवर्तते एव इत्युच्यते ।
रत्नसिंहसूरि टीका-संकोचेन विकोचेन वा अवगाहनायामुपरतायामपि यावन्ति द्रव्याणि यत्संख्याः पुद्गलाः स्कंधरूपतामापन्नाः पूर्वमासंस्तावतामेव चिरमपि तेषामवस्थान संभवति । अयमाशयः-विवक्षितक्षेत्रप्रदेशव्यापित्वं नाम परमाणूनामवगाहना, तेभ्योऽल्पतरेषु बहुतरेषु च क्षेत्रप्रदेशेषु
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