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पुद्गल-कोश
-०४ ९९ सव्वोइयचरमपोगलावत्थं ( सर्वोदितचरमपुद्गलावस्थ )
टीका - तत् पुनः क्षपकश्रेण प्रतिपन्नस्याऽनन्तानुबन्धिकषायचतुष्टयमिथ्यात्वमिपुञ्जेषु क्षपितेषु, सम्यक्त्वपुञ्जमप्युदीर्योदीर्यानुभूय निर्जरयतो निष्ठितोदीरणीयस्य सर्वोदितचरमपुद्गलावस्थं भवति । x x x । इवमुक्तं भवति-क्षपितप्रायदर्शन सप्तकस्य सम्यक्त्व पुञ्जचरमपुद्गल ग्रासमात्रमनुभवतो वेदकसम्यक्त्वं भवति ।
.०४.१०० सुक्कपोग्गलसं सिट्टे ( शुक्र पुद्गल संसृष्ट )
( क्षायक सम्यक्त्व को प्राप्त करनेवाली ) क्षपकश्रेणी को प्रतिपन्न, अनन्तानुबंधी कषायचतुष्क, मिध्यात्व तथा मिश्रमोहनीय पुंज को क्षय करके सम्यक्त्व कर्मपु ंज को बार-बार उदीर्ण-वेदन करके निर्जीणं करते हुए जब जीव के उदीरणा के योग्य सर्व शेष रहे हुए शेष बार के लिए उदीर्ण होने वाले सम्यक्त्व कर्मपुंज की जो अवस्था होती है उस अवस्था को सर्वोदितचरमपुद्गलावस्थ कहते हैं । इस अवस्था में वेदकसम्यक्त्व होता है ।
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- विशेभा० गा ५३३
शुक्र पुद्गलों से संसर्ग होने पर ।
मूल - सुक्कपोग्गलसं सिट्ठे व से वत्थे अंतो जोणीए अणुपवेसेज्जा ।
- ठाण० स्था ५ । उ २ । सू ४१६ | पृ० २६१
यहाँ स्त्री के बिना पुरुष संयोग के गर्भधारण के पाँच कारणों का विवेचन है, उनमें से एक कारण यह है - शुक्र पुद्गलों से संसृष्ट वस्त्र के स्पर्श होने पर शुक्र पुद्गल स्त्री के अन्तर्योनि में प्रवेश कर जाते हैं, इससे स्त्री बिना पुरुष संयोग के गर्भवती हो सकती है ।
०४. १०१ सुक्कपोग्गले ( शुक्रपुद्गल )
वीर्य के पुद्गल, पुरुष शरीरस्थ धातु विशेष के पुदगल । '०४ १०२ सुभपोग्गलपक्खेव ( शुभपुद्गलप्रक्षेप )
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- ठाण० स्था ५ । उ २ । सू ४१६ । पृ० २६१
- णाया ० श्रु ९ । अ९ । सू ८० । पृ० १०३९
शुभपुद्गल का प्रक्षेप अर्थात् शुभ पुद्गल का प्रवेश कराना - शुभ पुद्गलों का शरीर में प्रवेश 1
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