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पुद्गल-कोश टीका-जीवाणं पोग्गलाणं च मेलणं जीव-पोग्गलजुडी णाम।
जीव और पुद्गलों का मिलना जीवपुद्गलयुति है। लेकिन यहाँ जीव और पुद्गल परस्पर में बंध को प्राप्त नहीं होते हैं क्योंकि
टीका-एकोभावो बन्धः, सामीप्यं संयोगो वा युतिः ।
एकीभाव का नाम 'बंध' है और समीपता या संयोग का नाम 'युति' है । .०४.३० जीव-पोगलमोक्खो ( जीव-पुद्गलमोक्ष )
-षट्० ख० ५। ५ । सू ८२ टीका । पु १३ । पृ० ३४८ पुद्गल के साथ प्राप्त बन्धन से जीव छुटकारा पाता है वह जीवपुद्गलमोक्ष ।
जब जीव औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस तथा कार्मण वर्गणाओं से मुक्त होता है वह जीवपुद्गलमोक्ष । __ मिथ्यात्व, असंयम, कषाय, योग आदि बन्ध हेतुओं से पुद्गलों से बंधन को प्राप्त जीव जब इस पुद्गलबंधन से मुक्त होता है वह जीवपुद्गलमोक्ष । •.४.३१ ट्ठिदपोग्गलक्खंधा ( स्थितपुद्गलस्कंध )
-षट्, खं० ४ । २ । १२ । सू १ टीका। पु १२ । पृ० ३७० कम्मइयवग्गणाए ट्ठिदपोग्गलक्खंधा। कार्मण वर्गणा स्वरूप से स्थित पुद्गलस्कंध ।
ऐसे स्थित पुद्गल स्कंधों का ही आत्म-प्रदेशों के साथ बंधन होता है। .०४.३२ णिज्जरापोग्गले ( निर्जरापुद्गल )
-भग० श १८ । उ ३ । प्र ४ । पृ० ७६७ टोका-'निर्जरापुद्गलाः' निर्जीर्णकर्मदलिकानि सूक्ष्मास्ते पुद्गलाः प्रज्ञप्ताxxx, सर्वलोकमपि तेऽवगाह्य तत्स्वभावत्वेनाभिव्याप्य तिष्ठन्तीति ।
निर्जीर्ण-आत्मप्रदेशों से पृथक् हुए कर्मदलिकों को निर्जरा पुद्गल कहते हैं । वे सूक्ष्म होते हैं तथा सर्वलोक में फैले हुए हैं, सर्वलोक को अवगाह - . अभिव्याप्त करके रहते हैं। •०४.३३ णोआगमपोग्गलदव्वणिक्खेवेण- ( नोआगमपुद्गलद्रव्य निक्षेप )
- षट्० खं० ५। ६ । सू ७४ टीका । पु १४ । पृ० ५३
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