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दशम अध्यायः
हैं और न भक्ष्य ही । संसार में गतिशील प्रत्येक ग्रात्मा अपने कर्म के अनुरूप ही गति को प्राप्त करता है ।
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दूसरी बात यह है कि पशु इन्सान की खुराक नहीं है । यह हम • स्पष्ट देख चुके हैं कि मनुष्य के नाखून, दांतों एवं श्रोष्ठों की तथा प्रांतों की बनावट ऐसी है कि वह मांसाहार के उपयुक्त नहीं कही जा सकती । प्रकृति की बनावट के विपरीत भी मनुष्य मांसाहार की प्रोर इतना तेजी से बढ़ रहा है कि मांसाहारी पशुओं एवं जंगली जानवरों को भी मात कर रहा है । यदि यह मान लिया जाए कि पशु-पक्षी मनुष्य के खाने के लिए बनाए हैं, तो शेर आदि हिंसक पशु भी यह प्रश्न उठा सकते हैं कि मनुष्य उस के खाने के लिए बनाया गया ! क्या मांसाहारी मनुष्य को यह स्वीकार है ? यदि स्वीकार है तो फिर अपने ऊपर झपटने वाले शेर से बचने का या उसे बन्दूक से मार गिं-राने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए। और यह बात स्वीकार नहीं है तो फिर यह तर्क देना भी नितांत श्रसत्य है कि पशु-पक्षी का निर्माण मनुष्य के खाने के लिए किया गया है। प्रत्येक प्राणी संसार का श्रृंगार है, प्रकृति की शोभा है । जब हम किसी भी प्राणी को बना नहीं सकते, तो हमें संसार की शोभा को नष्ट करने का, बिगाड़ने का क्या अधिकार है? हमारी इन्सानियत एवं बुद्धिमानी इसी बात में है कि हम कमजोर एवं निराश्रय प्राणियों को आश्रय देने, सुख-शांति पहुंचाने तथा उन की सुरक्षा करने का प्रयत्न करें। प्रश्न- कहा जाता है कि मांसाहारी पशु जैसे कर स्वभाव वाले क्रोधी एवं जड़बुद्धि होते हैं, उसी तरह सामिप-भोजी मनुष्य भी क्रूर एवं क्रोधी स्वभाव वाला तथा स्थूल बुद्धि वाला होता । साथ में यह भी कहा जाता है कि वह कभी उन्नति नहीं
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