Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पुरास
के शरण गए भगवान ने भरत को कहा हे भरत कलिकाल विषे ऐसा ही होना है तुम कषाय मत करो इस भांति विनों की प्रवृती भई और जो भगवान के साथ वारग्य को निकलेथे तजो चारित्र भूष्ट भए तिनमें कछादिक तो कैएक सुलटे और मारीचादिक नहीं सुलटे तिनके शिष्य प्रति शिष्या दिक सांख्य योगमें प्रवृते कोपीन (लंगोटी) पहरी बकलादि धारे।
अथानंतर अनेक जीवन को भवसागर से तार कर भगवान ऋभष कैलाश के शिखर से लोक शिखर जो निर्वाण उस को प्राप्त भए और भरत भी कुछ काल राज्य कर जीर्म तृणवत् गज्य को छोड़ कर वैराग्यको प्राप्त भये अंतर्मुहूर्त में केवल उपजा पीछे श्रायु पूर्णकर निर्वाण को प्राप्त भये ।।
अथ वंशात्पत्ति नामा महा अधिकार ॥२॥ अथानंतर गौतम स्वामी राजा श्रेणिक से बंशों की उत्पत्ति कहते भए कि हे श्रेणिक इस जगत विषे महावंश जो चार तिनके अनेक भेद हैं। ___ १ प्रथम इक्ष्वाकु वंश यह लोक का श्राभूषण है इस में से सूर्य बंश प्रवर्ता है । २ दूसरा सोम (चन्द्र ) बंश चन्द्रमा की किरण समान निर्मल है । ३ तीसरा विद्याधरों का बंश अत्यन्त मनोहर है। ४ चौथा हरिबंश जगत् विषे प्रसिद्ध है। अब इनका भिन्न २ बिस्तार कहें हैं ॥
__ इक्ष्वाकु वंश में भगवान ऋषभदेव उपजे तिनके पुत्र भरत भए भरत के पुत्र अर्क कीर्ति भये | राजा अर्ककीर्ति महा तेजस्वी राजा हुए हैं इनके नाम से सूर्य बंश प्रवृता है अर्क नाम मूर्य का
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