Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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कायोत्सग घर निश्चलतिष्ठे शरीर वेलों से वेष्टित भया, सांपों ने बिलकिए, एक वर्षपीछे केवल ज्ञान उपजा, भरत चक्रवर्ति ने प्राय कर केवली की पूजा करी, बाहुबली केवली कुछ काल में निर्वाण को प्राप्त भए अवसर्पणी काल में प्रथम मोक्ष को गमन किया, भरत चक्रवर्ति ने निष्कंटक छै खंड का राज किया जिसके राज्य में विद्याघरों के समान सर्वसम्पदा के भरे और देव लोक समान नगर महा विभूति कर मंडित हैं जिनमेंदेवों समान मनुष्य नाना प्रकार के वस्त्राभरण से शोभायमान अनेक प्रकार की शभ चेष्टा कर रमते हैं, लोक भोगभूमि समान सुखी और लोकपोल समान राजा और मदन के निवास की भूमि अप्सरा समान नारियां जैसे स्वर्ग विषे इन्द्र राज करे तैसे भरत ने एक छत्र पृथिवी विषे राजकिया, भरत के सुभद्रा राणी इन्द्राणी समान भई जिस की हजार देव सेवा करे चक्री के अनेक पुत्र भए उनको पृथिवी का राज दिया इसप्रकार गौतम स्वामी ने भरत का चरित्र श्रेणिक राजा से कहा ॥
अथानन्तर श्रेणिक ने पूछा हे प्रभो तीन वर्णकी उत्पत्ति तुमने कही सो मैंने सुनी अब विनों की उत्पति सुना चाहताहूं सो कृपाकर कहो गणधर देव जिन का हृदय जीव दयाकर कोमलहै और मद मत्सर कर रहित हैं वे कहते भए कि एक दिन भरतने अयोध्या के समीप भगवान्का श्रागमन जान समोशरणमें जाय बन्दना कर मुनिके आहार की विधि पूछी तब भगवान की आज्ञा भई कि मुनि तृष्णाकर रहित जितेन्दी अनेक मासोपवास करें तो पराए घर निर्दोष माहार ले अन्तराय पड़े
तो भोजन न करें, प्राण रक्षा निमित्त निर्दोष आहार करें, और धर्मके हेतु प्राण को राखें, और || मोचके हेतु उस धर्म को आचरें जिसमें किसी भी प्राणीको बाधा नहीं यह मुनिका धर्म मुन कर ||
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