Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पा
बुराव
५३॥
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चक्रवर्ती विचारे हैं हो यह जैनका व्रत महा दुर्धर है मुनि शरीर से भी निःस्पृह (निर्ममत्व ) तिष्ठे हैं तो और बस्तु में तो उनकी बांधा कैसे होय मुनि महा निग्रन्थ निलोंभी सर्व जीवों की दया विषे तत्पर हैं, मेरे विभूति बहुत हैं में गुबती श्रावक को भक्ति करदूं और दीन लोकों को दया कर यह श्रावक भी मुनि के लघु भ्राता हैं ऐसा विचार कर लोकों को भोजन को बुलाए और बृतियों की परीक्षा निमित्त प्रांगण में जो धान उर्दू मूंगादि बोए तिनके अंकुर उगे सो अविवेकी लोक तो हरातिकाय को खूंदते आए और जो विवेकी थे वे अंकुर जान खड़े होय रहे तिनको भरतने अंकुर रहित जो मार्ग उसपर बुलाया और बतीजान बहुत आदर किया और यज्ञोपवीत (जनेऊ) कंठमें डाला आदरसे भोजन कराया वस्त्राभ दिये और मन बांछित दान दिये और जो अंकुरको दल मलते आए थे तिनको बती जान उनका आदर न किया और व्रतियों को ब्राह्मण ठहराए चक्रवती के मानने से कै एक तो गर्व को प्राप्त भये और कैएक लोभ की अधिकता से धनवान लोकों को देख कर याचना को प्रवृते तब मतिसमुद्र मंत्री ने भरत से कहा कि समोशरण में मैंने भगवान के मुख से ऐसा सुना है कि जो तुमने विप्र धर्माधिकारी जान कर माने हैं वे पंचम कालमें महा मदोन मत्त होवेंगे और हिंसा में धर्म जान कर जीवों को हनेंगे और महा कषाय संयुक्त सदा पाप क्रिया में
गे और हिंसा के प्ररूपक ग्रन्थों को कृत्रिम मान कर समस्त प्रजा को लोभ उपजावेंगे महा आरम्भ विषे यस परिग्रह में तत्पर जिन भाषित जो मार्ग उस की सदा निन्दा करेंगे निमन्थ मुनि को देख महा क्रोध करेंगे, यह बचन सुन भरत इन पर क्रोधायमान भए, तब यह भगवान्
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