Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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जीवोंको धर्म विना सुख नहां, जसे कोई उपंग (लंगड़ा) परुष चलनेकी इच्छा करे और गंगा बोलने पुरास
की इच्छा करे औरअंधा देखने की इच्छा करे तैसे मूढ प्राणी धम विना सुखकी इच्छा करे हैं, जैसे पर माण से और कोइ अल्प ( सूक्ष्म) नहीं और आकाश से कोई महान् [ बड़ा ] नहीं तैसे धर्म समान जावों का और कोई मित्र नहीं और दया समान कोई धर्म नहीं मनुष्य के भोग और स्वर्ग के भोग सब परमसुख धर्मही से होय हैं इसलिये धर्म बिना और उद्यमकर क्याहै, जो पण्डित जीव दयाकर निर्मल धर्मको सेवे हैं उनही का ऊर्ध (ऊपर) गमनहै दूसरे अघो [ नीचे ] गति जायहें, यद्यपि द्रव्यलिंगी मुनि तपकी शक्ति से स्वर्गलोक में जाय, तथापि बडे देवोंके किंकर होकर उनकी सेवा करे हे देवलोक में नीच देव होना देव दुर्गति है सो देव दुर्गतिके दुःखको भोगकर तिर्यंच गतिके दुख को भोगे हैं, और जो सम्यग्दृष्टि जिन शासन के अभ्यासी तप संयमके धारण हारे देवलोक में जाय हैं ते इन्द्रादिक बडे देव होयकर बहुत काल सुख भोग देव लोक से चय मनुष्य होय मोक्ष पावै हे, धर्म दो प्रकार का है एक यतीधर्म दूसरा श्राक्कधर्म, तीजा धर्म जो माने हैं वे मोह अग्नि से दग्ध हें, पांच अणुव्रत तीन गुणव्रत चार शिक्षाबत यह श्रावक का धर्म है, श्रावक मरण समय सर्व श्रारम्भ तज शरीर से भी निर्ममत्व होकर समाधि मरणकर उत्तमगति को जावे है, और यती का धर्म पंच महाव्रत पंच सुमति तीन गुप्ति यह तेरह प्रकार का चारित्र हैं। दशों दिशा ही यतिके वस्त्र हैं, जो परुष यति का धर्म धारे हैं वे शुद्धोपयोग के प्रसाद से निर्वाण पावे हैं, और जिन के शभोपयोग की एख्यता है वे स्वर्ग पावे हैं परम्पराय मोक्ष जाय हैं। और | जो भावों से मुनियों की स्तुति करे हैं वेभी धर्म को प्राप्त होय हैं, मुनि परम ब्रह्मचर्य के धारण हारे हैं
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