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प्रथम अध्याय
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भी वह मुक्ति की प्राप्ति में निमित्त कारण होता है । इसीलिए ममता के त्यागी- शरीर पर तनिक भी राग न रखने वाले मुनिराज आहार के द्वारा उसका पोषण करते हैं । कहा भी है-
अर्थात् यह शरीर रूपी नौका बिना कीमत चुकाये-मुफ्त में नहीं मिली है । बहुत-सा पुण्य रूप मूल्य चुका कर इसे खरीद किया है, और इसे खरीदने का उद्देश्य दुःख- समुहं से पार पहुँचना है । अतएव शरीर - नौका के टूटने-फूटने से पहले ही पार उतर जाओ - ऐसा प्रयत्न करो कि शरीर का नाश होने से पहले ही दुःखों का नाश हो जाए अर्थात् मोक्ष प्राप्त हो जाए ।
जिस प्रकार नौका पर चढ़ कर विशाल सागर पार किया जाता है, उसी प्रकार शरीर का आश्रय लेकर संसार-सागर पार किया जाता है । सूत्रकार ने इसी अभिप्राय से नौका कहा है | पार पर पहुँचने के पश्चात् गन्तक स्थान पर पहुँचने के लिए नौका का त्याग करना अनिवार्य है उसी प्रकार मुक्ति के किनारे-चौदहवें गुणस्थान में पहुँच जाने पर शरीर का त्याग करना भी अनिवार्य होता है ।
नौका जड़ हैं, शरीर भी जड़ है । उसमें लक्ष्य की ओर स्वतः लेजाने की शक्ति नहीं है, शरीर में भी लक्ष्य - मोक्ष की ओर स्वयं लेजाने की शक्ति नहीं है । अतएव नौका को मल्लाह चलाता है, इसी प्रकार शरीर को चलाने वाला मल्लाह जीव है ।
जो मल्लाह नौका को सावधानी और बुद्धिमत्ता के साथ नहीं चलाता, वह मल्लाह नौका को भँवर में फँसा देता है, या उलट देता है । इसी प्रकार जो जीव शरीर- नौका क्रो सम्यज्ञान और यतन के साथ नहीं चलाता वह संसार-सागर में उसे फँसा देता है या उसका विनाश कर डालता है। नौका के फँस जाने पर नौका की हानि नहीं होती वरन् मल्लाह की ही हानि होती है, इसी प्रकार शरीर नौका दुष्प्रयोग करने से जीव रूपी नाविक की ही हानि होती है ।
नौका को डुबोने के कारण / श्रांधी, तूफान और समुद्र का क्षोभ आदि होते हैं और शरीर - नौका को डुबोने के कारण राग-द्वेष आदि का तूफान और अन्तःकरण का क्षोभ आदि होते हैं ।
जैसे मल्लाह का कर्तव्य यह है कि वह बहुत सावधानी और दृढ़ता के साथ नौका चलावे, इसी प्रकार जीव का कर्त्तव्य हैं कि वह शरीर का अप्रमत्त होकर, विवेक के साथ सदुपयोग करे |
अगर नौका को चलाने वाला केवट जीव है तो उस पर श्रारूढ़ होनेवाला यात्री कौन है ? संसार - सागर से किसे पार उतरना है ? इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए सूत्रकार कहते है - 'जं तरंति महेसियो ।' अर्थात् महर्षि शरीर-नौका पर श्रारूढ होकर संसार सागर तरते हैं ।
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जीव ही महर्षि पदवी प्राप्त करता है, और जीव को यहाँ केवट बतलाया गया है । इस प्रकार नौका चलानेवाला और उस पर आरूढ़ होने वाला - तरनेवाला जीव ही