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नवंवां अध्याय
[ ३४३ ] [६] लित्त-तुरन्त लीपी हुई भूमि का अतिक्रमण करके श्राहार लेना या देना। [१०] छड्डिय -भूमि पर छीटे बिखरते हुए या अन्न टपकाते हुए देना लेना ।
मण्डल दोष आहार करते समय सिर्फ साधु को लगते हैं। वे पांव इस.प्रकार हैं-[१] संजोयणा [२] अप्पमाणे [३] इंगाले [४] धूमे और [५) अकारणे,।।
[१] संयोजणा-जिह्वा की लोलुपता के वश होकर आहार सरस बनाने के लिए पदार्थों को मिला-मिला कर खाना, जैसे दूध के साथ शक्कर मिलाना आदि ।
तात्पर्य यह है कि विभिन्न गृहों से प्राप्त हुए नाना पदार्थों के स्वाद का विचार न करके, केवल वुभुक्षा-तृप्ति के लिए साधु को आहार करना चाहिए। अनुकूल पदार्थों का संयोग करके, उसे स्वादयुक्त बनाकर नहीं खाना चाहिए। ऐसा करने पर संयोजना दोष लगता है।
[२] अप्पमाणे-प्रमाण से अधिक भोजन करना ।
३] इंगाले-सरल आहार करते समय वस्तु की या दाता की प्रशंसा करते हुए खाना।
[४] धूमे--नीरस आहार करते समय भोज्य वस्तु या दाता की निन्दा करते हुप, नाक-भौं सिकोड़ते हुए अरुचि पूर्वक खाना ।
[५] अकारण--क्षुधावेदनीय श्रादि छह कारणों में से किसी भी कारण के विना ही आहार करना।
__छह आहार के कारणों में से किसी कारण के होने पर ही साधु को आहार करना चाहिए । छह कारण इस प्रकार हैं--[१] शुधा वेदनीय की शान्ति के लिए [२] श्रापने से बड़े प्राचार्य आदि की सेवा करने के लिए [३] मार्ग श्रादि की शुद्धि के लिए [४] प्रेक्षादि संयम की रक्षा के लिए [५] प्राणों की रक्षा के लिए तथा [६] शास्त्रस्वाध्याय एवं धर्म-साधना के लिए।
आहार संबंधी इन दोषोंपर दृष्टिपात करने से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि साधु-जीवन में अहिंसा एवं संयम को जिनागम में कितना उच्च स्थान दिया गया है और पद-पद पर उनका कितना अधिक ध्यान रखा गया है। मुनि अपने निमित्त कोई भी किया श्रावक से नहीं कराना चाहता और यदि श्रावक भक्ति के अतिरेक से प्रेरित होकर कोई ऐसा कार्य करता है तो साधु उस श्राहार आदि को ही अग्राह्य समझकर त्याग देता है।
साधु यद्यपि भिक्षु है, तथापि वह धर्म का प्रतिनिधि है । इस कारण वह भिक्षा प्राप्त करने के लिए दीनता प्रदर्शित करके शासन की महत्ता नष्ट नहीं करता और न भिक्षा के बदले के रूप में गृहस्थ की गृहस्थी संबंधी किसी प्रकार की सेवा ही करता है । वह प्राण रक्षा तथा संयम-पालन आदि श्रावश्यक कारणों से ही आहार ग्रहण करता है । याहार उसके लिए आकर्पण की या अनुराग की वस्तु, नहीं है, सिर्फ श्राध्यात्मिक उपयोगिता की वस्तु है, इसीलिए वह जिह्ना की परवाह नहीं करता और जिससे निर्वाह हो जाय उसी वस्तु को वह अनासक्त भाव से ग्रहण करता है।