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. मनोनिग्रह की एकता का निःशंक चिन्तन करना चाहिए। फिर नीगगी, अमोही, अद्वेषी, सर्वन, सर्वदर्शी, देवपूजित तथा सभा में धर्मदेशना देते हुएं परमात्मा के साथ प्रात्मा को अभिष्ट समझने वाला योगी, पाप का क्षय करके परमात्मदशा प्राप्त कर लेता है।
- अथवा-इसी मंत्रराज को अनाहतध्वनि से मुक्त सुवर्णकमल में स्थित,चन्द्रमा की किरणों के समान निर्मल, अपने तेज से समस्त दिशाओं को व्याप्त करने वाला, आकाश में संचार करता हुआ चिन्तन करना चाहिए। तत्पश्चात् इस प्रकार सोचना मंत्रराज मुख-कमल में प्रवेश कर रहा है, फिर भ्रमर के मध्य भाग में भ्रमण कर रहा है, शांखों की वरौतियों में स्फूरायमान हो रहा है, कफाल मंडल में विराजमान हो रहा है, तालुरंध्र से बाहर निकल रहा है,अमृत-रस की वर्षा कर रहा है,ज्योतिर्गएक के बीच चन्द्रमा की रूप कर रहा है और मोक्ष लक्ष्मी के साथ अपने को जोड़
तत्पश्चात् रेफ, विन्दु और कला से रहित इसी मंत्र का चिन्तन करना चाहिए और फिर.चिना ही किती अक्षर का जिसे उचारण न किया जा सके चिन्तन करना चाहिए । तदन्तर 'अनाहत' नामक देव को चन्द्रमा की कला के आकार से, तथा सूर्य के समान तेज से स्फुरायमान होता हुआ विचारना चाहिए फिर उसे बाल के अग्रभाग जितने सूक्ष्म रूप में, फिर थोड़ी देर बिलकुल अव्यक्त होता हुश्रा पार फिर सम्पूर्ण जगत को ज्योतिर्मय कर डालने वाला चिन्तन करना चाहिए।
इस प्रकार लक्ष्य वस्तु को छोड़कर अलक्ष्य वस्तु में मन को स्थिर करतेकरते अन्तरंग में क्रमशः अक्षय एवं अतीन्द्रिय ज्योति प्रकट होती है। जिन मनि का मन सांसारिक पदार्थों से विमुख हो जाता है वही मुनि इस प्रकार की साधना करके अभिष्ट फल की प्राप्ति कर पाते है-अन्य नहीं।'
पदस्थ ध्यान की लाधना के लिए और भी विधियां योग शाखा में प्रतिपादित बीमार हैं। जैसे-हदय-कमल में स्थित, शब्द ब्रह्म के एक मात्र कारण, स्वर पवं,
जनाले मत पंचपरमेष्ठी के वाचक तथा चन्द्रकला से भरने वाले अमृतरस से मत महामंत्र ॐ का ध्यान करना चाहिए । इसी प्रकार परम मंगलमय पंच-नमस्कार मंत्र (यमोकार-मंत्र ) का भी चिन्तन किया जा सकता है सकी विधि यह है-पाठ पांखुड़ी से सफेद कपल की कल्पना करना चाहिए। उसके चीज कोश में 'नमो शरिहंताणे' इस सात क्षर वाले पद का चिन्तन करना चाहिए। फिर 'नमो सिद्धानमा मायरियाणं 'नमो उवज्झायाणं' और 'नमो सम्बसारणं' इन चार पदी को ऋमले पर्य आदि चार दिशा की चार पांखुड़ीयो कल्पना करना चाहिए। शेप में 'एसोच नमोकारो' 'सबपावपणास।' 'मंगलाण च सबसि' 'पदम दचा मंगल' यह चार पद प्राय श्रादि चार विदिशानों में कल्पित करना चाहिए।
मन, वचन, काय की शुद्धता पूर्वक एक सीमाद बार इस मंत्र का चिन्तन करने से मुनि को साहार करते हुए भी चतुमासिक उपचास का फल प्राप्त होता है।