Book Title: Nirgrantha Pravachan
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Jainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam

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Page 754
________________ Sentendedesantand a insemedias मोक्ष स्वरुप भाष्यः-पूर्व गाथा में जिस ध्रुव स्थान का निरूपण किया गया था, उसी के सार्थक नामों का यहां उल्लेख किया गया है। उस स्थान का एक नाम निर्धारण है, क्योंकि उसे प्राप्त करने पर किसी भी प्रकार का तुणा आदि रूप संताप नहीं रहता। उसका 'श्रवाध' नाम भी है, क्योंकि वहां किसी प्रकार की बाधा नहीं होती। शारीरिक या मानसिक बाधा का न कोई कारण है और न वहां शरीर तथा मन ही रहता है। श्रतएव सिद्ध भगवान सब प्रकार की बाधाओं से प्रतीत है। उस स्थान का नाम सिद्धि भी है, क्योंकि प्रात्मा का सर्व प्रधान, परम और चरम साध्य उसे प्राप्त कर लेने पर ही सिद्ध होता है। इस साध्य की सिद्धि हो जाने पर फिर किसी प्रकार की सिद्धि की कामना नहीं रहती । सांसारिक साध्यों की सिद्धि क्षणिक होती है, अपूर्ण होती है और प्रायः असिद्धि का मूल होती है। यह सिद्धि शाश्वत है, सम्पूर्ण है और इसमें अलिद्धि को अवकाश नहीं है। अतएव श्रात्मा के प्रबल पुरुषार्थ की यही वास्तविक सिद्ध है। योगीजन इसी सिद्धि के लिए निरन्तर उद्योग करते हैं। जैसा कि पहले बतलाया जा चुका है। वह ध्रुव स्थान लोक के अग्रभाग पर स्थित है अतएव उले लोकान नाम से भी कहते हैं। श्रात्मा को शाश्वत सुख की प्राप्ति का कारण होने से उसे 'क्षम' कहते हैं, सब प्रकार के उपद्रवों का सर्वथा अभाव होने ले उनका नाम शिव है, और वहां स्वाभाविक, शाश्वत, अनिर्वचनीय, अनुपम, अनन्त और अन्यबाध सुख प्राप्त होता है अतएव उले 'अनावाध भी कहते · जैसा कि पहले कहा गया है, यह सब नाम उस स्थानवतर्ती आत्मा के समझने चाहिए । आधार-प्राधेय के सम्बन्ध से यहां अभेद-कथन किया गया है। इस स्थान को अर्थात् सिद्ध दशा को महर्षि ही प्राप्त करते हैं । असंयम का, सेक्ल करने वाले, श्रज्ञानपूर्वक कायक्लेश करने वाले और विषय भोगी जीव इसे प्रार नहीं कर सकते। मूलः-नाणं च दसणं चेव, चरित्तं च तवो तहा । एयं मग्गमणुप्पत्ता, जीवा गच्छति सोग्गई ॥१६॥ लायाः-ज्ञानं च दर्शन चैव, चारित्रं च तपस्तथा। . एतन्मागेमनुप्राप्लाः, जीवा गच्छन्ति सुगतिम् ||१&ll शब्दार्थः-ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप--इस मार्ग को प्राप्त हुएं जीव सिद्धि रूप सद्गति का लाभ करते हैं। भाष्यः-मुक्ति का स्वरूप बतला कर उसके कारणों का प्रकृत गाथा में निरूपण किया गया है। मुक्ति के चार कारण हैं । यहाँ प्रत्येक के साथ सम्यक् शब्द का प्रयोग . करना आवश्यक है। श्रतएव-(१) सम्यमान (२) सम्यक्दर्शन (३) सम्यक्चारित्र और (४) सम्यक्तप, इन चार कारणों से मुक्ति प्राप्त होती है।

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