Book Title: Nirgrantha Pravachan
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Jainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam

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Page 755
________________ ठारहवां अध्याय चारों कारण स्वतन्त्र-अन्य निरपेक्ष मोक्ष के मार्ग नहीं, वरन् परस्पर लापेक्ष ही मोक्ष के मार्ग बनते हैं । आशय यह है कि अकेला सम्यग्दर्शन, अकेला सम्यग्ज्ञान, 'अकेला सम्यक्चारित्र या अकेला सम्यतप भी मौत का कारण नहीं है। जब चारों कारणों का समन्वय होता है तभी मोक्ष-लाभ की योग्यता जागृत होती है। अतएक दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि मोक्ष का मार्ग एक ही है और उसके अंग चार हैं। . सूर्योदय होने पर जैसे प्रकाश और प्रताप-दोनों एक साथ ही उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार सम्यक्त्व होते ही ज्ञान और दर्शन दोनों एक ही साथ सम्यकदर्शन और सम्यक्ज्ञान रूप हो जाते हैं। अतएव कहीं-कहीं दर्शन, शान में ही समिलित कर लिया जाता है। तप, चारित्र का ही एक अंग है, अतएव चारित्र में तप का अन्तभाव हो जाता । इल प्रकार शान और चारित्र से भी मुझि का कथन देखा जाता है । कहा भी है"ज्ञानक्रियाभ्याम् मोक्षः' अर्थात् ज्ञान ले और चारित्र से मोक्ष प्राप्त होता है। कहीं-कहीं केवल तप को चारित्र में अन्तर्भूत करके तीन को मोक्ष का मार्ग निरूपण किया गया है । जैसे-'सस्य-दर्शन-जान चारित्राणि मोक्षमार्गः ।' अर्थात् सम्यक्-दर्शन, सम्यक्-शान, और सस्थक्-चारित्र मोक्ष का मार्ग है । अतः इल प्रकार के किसी कथन में विरोध नहीं समझना चाहिए। भारतीय दर्शनों में कुछ ऐसे हैं जो अकेले ज्ञान से ही मुक्ति की प्राप्ति मानते हैं और कुछ ऐसे भी हैं जिन्होंने अकेले चारित्र से ही मोक्ष प्राप्त होना माना है। किन्तु समीचीन विचार करने ले यह एशान्त रूप मान्यताएँ सत्य प्रतीत नहीं होती। . हमारा अनुभव ही इन मान्यताओं को मिथ्या प्रमाणित कर देता है । जगत् के व्यवहारों में पद-पद पर हमें ज्ञान और चारित्र दोनों की आवश्यकता अनिवार्य प्रतीत होती है । न तो अकेला ज्ञान ही हमारी इष्टसिद्धि का कारण होता है और न अकेली क्रिया ही। भोजन के ज्ञान मात्र से चुद्धा की निवृत्ति नहीं होती और भोजन-जान के बिना भोजन संबंधी क्रिया का होना संभव नहीं है । अतएव प्रत्येक कार्य में दोनों का होना आवश्यक है। जीवादि नव पदार्थों को यथार्थ रूप से जानना सभ्य-ज्ञान है । यथार्थ श्रद्धा करना सम्यक्-दर्शन है। अशुभ क्रियाओं से निवृत्त होना और शुभ कियाओं में प्रवृत्त होना सख्या-चारित्र है। विशिष्ट कर्म-निर्जरा के लिए अनशन आदि तथा स्वाध्याय श्रादि क्रिया करना तप कहलाता है । इन चारों के मिलने पर ही और पूर्णता होने पर ही मुक्ति प्राप्त होती है। चारों सम्मिलित होकर मोक्ष का एक मार्ग है। यह सूचित करने के लिए शांलंकार ने यहां 'मग्गं' एकवचनान्त पद का प्रयोग. किया है। मूलः-नाणेण जाणई भावे, दंसणेण य सद्धहे । चरित्तेण निगिरहइ, तवेणं परिसुज्झई ॥ २०॥ .

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