Book Title: Nirgrantha Pravachan
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Jainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam

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Page 767
________________ अठारहवां अध्याय [ ७०५ ] वस्तुतः कामना की पूर्ति से उत्पन्न होने वाला सुख वैसा ही है जैसे किसी रोगी को रोग मिट जाने पर होता है । कामना की अनुत्पत्ति से होने वाला सुख पहले से ही स्वस्थ रहने वाले पुरुष के सुख के समान है । जो लोग कामनाओं के अभाव से सुख की कल्पना नहीं करते और सिर्फ कामना पूर्त्तिजन्य सुख को दी 'स्वीकार करते हैं, उनके मन से स्वस्थता का सुख, सुख नहीं है, वे तो बीमारी होने के पश्चात् उसके मिटने पर ही सुख का सद्भाव स्वीकार करेंगे ! यह कैसी विपरीत बुद्धि है ! कामनाओं से ही दुःख की सृष्टि होती है। ज्यों-ज्यों कामनाएँ न्यून से न्यूनतर होती जाती हैं त्यों-त्यों सुख अधिक से अधिकतर होता जाता है। इस प्रकार कामनाओं के अपकर्म पर सुख का उत्कर्ष निर्भर है । जब कामनाएँ अपूर्ण रूप से नष्ट हो जाती हैं तब सुख पूर्ण रूप से प्रकाशमान होता है । कामनाओं के अभाव में योगीजनों को निराकुलताजन्य जो श्रद्भुत श्रानन्द उपलब्ध होता है, वह संसार के बड़े से बड़े चक्रवर्ती को भी नसीब नहीं हो सकता । अगर चक्रवतीं को विषयभोगों में उस सुख की उपलब्धि होती तो वे अपने विशाल साम्राज्य को ठुकराकर अनगार तपस्वी क्यों बनते जैसे ज्ञान और दर्शन श्रात्मा का स्वरूप है, इसी प्रकार सुख भी आत्मा का स्वाभाविक धर्म है । इन्द्रियजन्य सुख उस सुख गुण का विकार है और यह सुख सातावेदनीय कर्म के उदय से उत्पन्न होता है । सातावेदनीय कर्म का आत्यन्तिक क्षय हो जाने पर स्वाभाविक सुख की अभिव्यक्ति होती है । वह सुख मुक्ति में ही प्राप्त होता है । वैशेषिक दर्शन के अनुयायी सुख कों श्रात्मा का स्वभाव नहीं मानते । उनके मत में सख अलग वस्तु है और वह श्रात्मा में समवाय संबंध से रहता है । मोक्षअवस्था में सुख का सर्वथा नाश हो जाता है । यह मान्यता विचार करने से खंडित हो जाती है । सुख स्वतंत्र पदार्थ है, वह श्रात्मा का धर्म नहीं है इस अभिमत की सिद्धि में कोई भी संतोषजनक प्रमाण नहीं दिया जा सकता । जैसे घट आदि पदार्थों मैं ' यह घट है ' ऐसी प्रतीति होती है, और इस प्रतीति से घट का स्वतंत्र अस्तित्व प्रतीत होता है, उस प्रकार यह सुख है' ऐसी प्रतीति कभी नहीं होती है । ' मैं सुखी हूं इस प्रकार का बोध श्रवश्य होता है और उससे यह सिद्ध होता है कि श्रात्मा ही सुख-स्वरूप 6 } । इस विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि सिद्ध भगवान् को अनन्त, अचिन्त्य, और असीम परमानन्द प्राप्त होता है । वह सुख अतुल है । संसार के किसी भी लुख से उसकी तुलना नहीं हो सकती। उस सहज सुख को समझाने के लिए संसार से कोई उपमा नहीं है - वह अनुपम है, अनुरत है ।

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