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अठारहवां अध्याय
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अर्थात् - श्री महावीर भगवान् की माता विशाला थी, उनका कुल भी विशाल 'था और उनका प्रवचन भी विशाल था, अतः वे ' वैशालिक जिन इस संज्ञा से प्रसिद्ध हैं।
वैशालिक शब्द से ऋषभदेव भगवान् का भी ब्रह्मण होता है, क्योंकि उनका कुल भी विशाल था । उनका अर्थ बोध होने से यह निष्कर्ष निकलता है कि निर्ग्रन्थप्रवचन श्राद्य तीर्थकर ने भी इसी रूप में निरूपित किया था । अर्थात् भगवान् ऋषभदेव द्वारा उपदिष्ट वस्तुरूप ही भगवान् महावीर द्वारा उपदिष्ट हुआ है । तीर्थकरों का उपदेश एक दूसरे से विलक्षण नहीं होता । सत्य सदा एक रूप रहता है. अतएव उसका स्वरूप- कथन भी एक रूप ही हो सकता है । इस प्रकार यह निर्ग्रन्थ प्रवचन सर्वश, सर्वदर्शी, अर्हन् वैशालिक भगवान् द्वारा उपदिष्ट हुआ है । इसका अध्ययन करना परम मंगल रूप 1
'ति बेमि' अर्थात् ' इति व्रवीमि ' यह वाक्य प्राय: प्रत्येक अध्ययन और प्रत्यक शास्त्र के अन्त में प्रयुक्त होता है । इसका अभिप्राय यह है कि श्रीसुधर्मा स्वामी, श्रीजम्बू स्वामी से कहते हैं - हे जम्बू, हे अन्तेवासी, मैं जिस तत्व का कथन करता हूं, उसका श्रेय मुझे नहीं, भगवान् महावीर को है, क्यों कि जैसा उन्होंने कहा है वैसा ही मैं तुम्हें कहता हूं । यह तत्त्वनिरूपण मेरी कल्पना नहीं है, यह सर्वज्ञ भगवान् के अनुत्तर ज्ञान में प्रतिविम्बित हुआ सत्य वस्तुस्वरूप है ।
इति श्री निर्ग्रन्थ-प्रवचन साप्यम्
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