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मौ स्वरुप मूल:-एवं से उदाहु अणुत्तरणाणी,
___ अणुत्तरदंसी अणुत्तरनाणदसणधरे। अरहा नायपुत्ते भयवं,
वेसालिए विश्राहिए त्ति वेमि ॥ २८ ॥ . छायाः-एवं स उदाहृतवान् अनुत्तरज्ञानी, अनुत्तरदर्शी अनत्तरज्ञानदर्शनधरः।
अन् ज्ञातपुत्रः भगवान् । वैशालिको विख्यातः ॥ २८ ॥ शब्दार्थः-उत्तम ज्ञानी, उत्तम दर्शनी तथा उत्तम ज्ञान-दर्शन के धारक, अर्हन् । ज्ञातपुत्र भगवान् वैशालिक ने अपने शिष्यों से इस प्रकार कहा है।
भाष्यः-निग्रेन्थ प्रवचन सुधर्मा स्वामी ने अपने शिष्य जम्बू स्वामी श्रादि के लमक्ष प्रतिपादन किया है। मगर यह निर्ग्रन्थ प्रवचन उनका स्वरुचि विरचित नहीं है-उन्होंने अपनी इच्छा से इसका आविष्कार नहीं किया है। ज्ञातपुत्र भगवान् महावीर स्वामी ने गौतम श्रादि शिष्यों को जिस प्रवचन का उपदेश दिया था वही भवचन श्री सुधर्मा स्वामी ने अपने शिष्यों के समक्ष निरूपण किया है।
प्रथम तो इस निम्रन्थ प्रवचन की प्रमाणिकता इसी से प्रमाणित है कि इसके सूल उपदेशक भगवान महावीर स्वामी हैं। फिर भी उसमें विशेषता बताने के लिए भगवान् के अनेक विशेषणों का कथन किया गया है । भगवान अनुत्तर अर्थात सर्वोस्कृष्ट ज्ञान से सम्पन्न है, सर्वोत्कृष्ट दर्शन से सम्पन्न हैं और सर्वोत्कृष्ट ज्ञान-दर्शन से सम्पन्न हैं। तात्पर्य यह है कि वे सर्वच और सर्वदर्शी हैं। सर्वज्ञ और सर्वदर्शी के वचनों में किसी प्रकार का विसंवाद नहीं होता उनकी सत्यता असंदिग्ध होती है श्रतएव निर्ग्रन्थ प्रवचन संशय से परे है प्रमाणभूत है।
___ यहां ' श्रोत्तरनाणी ' और 'अणुत्तरदसण" इन विशेषणों के बाद फिर 'श्रगुत्तरनाणदसणधरे' कहा गया है सो चौद्धमत का निराकरण करके जीव को सनाधार रूप सिद्ध करने के लिए है।
इन्द्र श्रादि देवों के द्वारा भी पूज्यनीय होने के कारण भगवान् अईन्. कहलाते हैं। अन्य मत में हन्द्र ही पूज्यनीय माना गया हैं और वेदों के अनुसार वही सब से बढ़ा देवे है, मगर सर्वध भगवान् महावीर को वह भी पूज्यनीय मानता है । अतएक भगवान् देवाधिदेव हैं, यह वात 'भईन् ' विशेषण से ध्वनित की गई है।
भगवान महावीर स्वामी झात (गाय) वंश में उत्पन्न हुए थे अतएव वेशात पत्र (नायपुत्त ) नाम से भी प्रसिद्ध हैं। उन्होंने विशाला नगरी में निर्गन्ध प्रवचन का उपदेश दिया था अतएव वे वैशालिक नाम से भी प्रसिद्ध हैं। कहा भी है
विशाला जननी यस्य, विशालं कुलमेव च । . .. विशाल वचनं चास्या,वा तेन वैशालिको जिनः ।।