Book Title: Nirgrantha Pravachan
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Jainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam

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Page 766
________________ - । ७०४ । मोक्ष स्वरुप कारण सुख का संवेदन नहीं हो सकता। उनके विचार से अनुकूल स्पर्श, रस, गंध रूप और शब्द की प्राप्ति ही सुख है। जहाँ इन्द्रियाँ नहीं, इन्द्रियों के विषय का भोग नहीं, भोग का आधार शरीर नहीं, वहाँ सुख कैसा? अतएव सिद्ध-अवस्था में सुख का सद्भाव नहीं हो सकता। वास्तविक बात यह है कि मोक्षसुख किसी संसारी जीव को प्राप्त नहीं होता श्रतएव वे उसकी कल्पना ही नहीं कर सकते । वह मुक्त जीवों को ही प्राप्त होता है, परन्तु मुक्त जीव उस सुख का वर्णन करने नहीं आते। यही कारण है कि इन्द्रियजन्य सुख के अभ्यासी लोग वास्तविक सुख की कल्पना न कर सकने के कारण मोक्ष-सुख के सद्भाव को ही स्वीकार नहीं करते। संसारी जीव जिस सुख को सुख मानता है वह वास्तव में सुख नहीं सुखाभास है । दुःन का कारण होने से उसे दुःख विशेष कहना चाहिए । प्रथम तो उस सुख को प्राप्त करने के लिए अनेक दुःख सहने पड़ते हैं, फिर भी वह मिलता नहीं। अगर पुण्य के उदय से मिल जाता है तो स्थायी नहीं रहता। वह सुख अपना बीते हुए सुखों की दुःखप्रद स्मृति शेष रख कर विलीन हो जाता है और घोर संताप का पात्र बना जाता है। अगर ऐसा न हुआ तो भोगे हुए सुख का बदला परलोक में व्याज समेत चुकाना पड़ता है। कुत्ता सूखी हड्डी चबाता है और अपने ही दाँतों से निकलने वाले रुधिर का आस्वादन करके सुख का अनुभव करता है । खुजली रोग वाला शरीर खुजाते समय ऐसा समझता है मानो स्वर्ग उपर से नीचे उतर पाया है, पर कुछ ही क्षण चीतने के बाद उसे वास्तविकता का परिज्ञान होता है। इन उदाहरणों में जैसे दुःख को सुख मानने की भ्रान्ति प्रदर्शित की गई और वही भ्रान्ति इन्द्रिजन्य सुस्त्र को सुख मानने वालों को हो रही है। सच्चा सुख वह है जो दूसरे किसी भी पदार्थ पर निर्भर नहीं होता, जो काल से सीमित नहीं है, जो परिमाण से सीमित नहीं है और जो भविष्य में दुःख का कारण नहीं है । सिद्धों का सुख ऐसा ही सुख है । वह इन्द्रियों या उनके विषयों पर अवलंबित नहीं है, काल उसका अन्त नहीं कर सकता, उसकी मात्रा अनन्त है, उसमें दु:स्वजनकता नहीं है। अतएव वहीं वास्तविक सुख है। किसी के हृदय में एक कामना उत्पन्न हुई । वह उसकी पूर्ति के लिए निरन्तर उद्योग करता है। नाना प्रकार की आपदाएँ सहन करता है-भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी, वर्षा प्रावि के भयंकर कष्टों को सहन कर अपनी उत्कट कामना को परिपूर्ण करता है। इस प्रकार विविध कष्टों को सहने के बाद जब कामना की पूर्ति होती है तब वह सुख का अनुभव करता है। दूसरा व्यक्ति यह है जिसके अन्तःकरण में उस प्रकार की कामना ही जागृत नहीं है और वह तद्विपयक संतोष का सुख भोग रहा है । अथ विचार किजिए दोनों में अधिक सुखी कौन है ?

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