Book Title: Nirgrantha Pravachan
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Jainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam

View full book text
Previous | Next

Page 753
________________ अठारहवां अध्याय । ६६१ । सभी केवली तेरहवें गुणस्थान के अन्त में योगों का निरोध करते हैं। योगों के निरोध का क्रम इस प्रकार है: सर्व प्रथम स्थूल काययोग का अवलं बन करके स्थूल मनोयोग तथा स्थूल वचनयोग का निरोध किया जाता है । तत्पश्चात् सूक्ष्म काय योग से स्थूल काययोग का निरोध होता है और उसीले सूक्ष्म मनोयोग और सूक्ष्म वचनयोग रोका जाता है। . श्रन्त में सूक्ष्मक्रियाऽनिवृति नामक शुक्लध्यान के बल से सूक्ष्म काययोग को रोक देते हैं। इस प्रकार सयोग केवली अवस्था से अयोग केवली दशा प्राप्त हो जाती है। ' तत्पश्चात् समुच्छिन्न क्रियां-अप्रतिपाती शुक्ल ध्यान प्राप्त करके, मध्यम रीति से अ, इ, उ, ऋ, ल, इन पांच स्वरों का उच्चारण करने में जितना समय लगता है, उतने समय का शैलेशीकरण करते हैं और शैलेशीकरण के अन्तिम समय में चारों घातिक कमाँ का क्षय करके मुक्ति प्राप्त कर लेते हैं। मुक्ति प्राप्त होते ही जीव चौदह गुणस्थानों से प्रतीत हो जाता है। गुणस्थानों से अतीत हो जाने पर ऐसे ध्रुव-नित्य, लोक के अग्रभाग म स्थित, साधारण जनों द्वारा जो प्राप्त नहीं किया जा सकता, और जहां जरा नहीं, मरण नहीं, व्याधियां नहीं और वेदनाएँ नहीं है, ऐले परम विशुद्धतम स्थान को प्राप्त करते हैं। जन्म, जरा, मरण, व्याधि और वेदना का मूल कारण कर्म हैं । कर्मों का प्रात्यन्तिक अभाव हो जाने से जरा मरण श्रादि मुक्ति में स्पर्श नहीं करते। मोक्ष को ध्रुव स्थान कहने से यह प्रमाणित है कि मुक्त जीव मोक्ष से लौट कर फिर संसार में अव., तीर्ण नहीं होते। जिन्होंने पुनरागमन स्वीकार किया है वे मोक्ष के वास्तविक स्वरूप से अनभिज्ञ हैं इस संबंध की चर्चा पहले की जा चुकी है अतएव यहां पुनरावृर्ति नहीं की जाती। ___इतना अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि मुक्त जीव सिद्ध शिला स्थान पर विराजमान रहते तो हैं मगर उस स्थान को मोक्ष नहीं कहते । आत्मा की पूर्ण निरावरण दशा, आत्मा की स्वाभाविक शक्तियों का पूर्ण विकास ही मोक्ष है । 'मुक्तात्मा अपने निखालिस अात्मस्वरूप में विराजमान रहते हैं। मूलः-निव्वाणं ति अबाहं ति, सिद्धी लोयग्गमेव य । खेमं सिवमणाबाहं, जं चरति महेसिणो ॥१८॥ छायाः-निर्वाणमिति अबाधमिति, सिद्धिलॊकानमेव च । क्षेमं शिवमनाबाधं, यच्चरन्ति महर्षयः ॥ १८॥ शब्दार्थ:-हे इन्द्रभूति ! वह ध्रुवस्थान निर्वाण कहलाता है, अबोध कहलाता है. . सिद्धि कहलाता है, लोकाग्र कहलाता है, क्षेम कहलाता है, शिव कहलाता है, अनाबा, :: कहलाता है, जिसे महर्षी अर्थात् सिद्ध भगवान प्राप्त करते हैं।

Loading...

Page Navigation
1 ... 751 752 753 754 755 756 757 758 759 760 761 762 763 764 765 766 767 768 769 770 771 772 773 774 775 776 777 778 779 780 781 782 783 784 785 786 787