Book Title: Nirgrantha Pravachan
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Jainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam

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Page 752
________________ मोक्ष-संह Dom कोई-कोई महात्मा एक अन्तर्मुहूर्त तक ही रहते हैं और कोई-कोई कुछ कम करोड़ पूर्व तक रहते हैं। कहा भी है: __ केवलण रणदिवायरकिरणकलावप्पणालियरणाणो । - गवकेवलल दुन्गमसुजणियपरमप्पयवएसो ॥ अर्थात्- केवलज्ञान रूपी दिवाकर की किरणों के समूह से जिनका अज्ञान सर्वथा नष्ट हो गया है और जो नव केवल लब्धियों के उत्पन्न हो जाने से 'परमात्मा' नाम से व्यवहृत होते हैं, उन्हें केवली कहते हैं। असहायणाणलणसहिनो इदि केवली हु जोगेण- , जुत्तोत्ति सजोगिजियो अगाइणिहणारिसे उत्तो ॥ श्रर्थात्-जो इन्द्रिय आदि किसी भी निमित्त की अपेक्षा न रखने वाले ज्ञान और दर्शन से लहित होने के कारण केवली हैं तथा योग से युक्त हैं, उन्हें अनादिनिधन आगम में सयोगा केवली कहते हैं। इस गुणस्थान में केवल चार अघातिक कर्मों का उदय रहता है। (१४) अयोग-केवली-गुणस्थान-जिन केवली भगवान ने योगों का निरोध कर दिया है वे योग या अयोगी केवली कहलाते हैं। उनकी अवस्था-विशेष प्रयोग केवली गुणस्थान है। योग तीन प्रकार के हैं। तीनों प्रकार के योगों का निरोध करने से अयोगी दशा प्राप्त होती है। तेरहवें गुणस्थान में, जिन केवली की आयु कर्म की स्थिति कम रह जाती है और तीन अघातिक कर्मों की अधिक होती है वे समुद्घात करते हैं। मूल शरीर को बिना छोड़े. श्रात्मा के प्रदेशों को बाहर निकाल कर, समस्त लोकाकाश में व्याप्त करके विशिष्ट निर्जरा करना समुद्घात कहलाता है। समुद्घात सात तरह के होते हैं, उनमें से केवली का लमुद्घात केवली समुद्घात कहलाता है । यह लमुद्: घात आठ समयों में होता है। प्रथम समय में केवली दरड के रूप में श्रात्मप्रदेशों की रंचना करते हैं । उस समय श्रात्म प्रदेश मोटाई में शरीर के घरावर और लंबाई में ऊपर तथा नीचे लोकान्त को स्पर्श करने वाले होते हैं। दूसरे समय में प्रात्मप्रदेश पूर्व और पश्चिम में तथा तीसरे समय में उत्तर और दक्षिण दिशा में फैलाते हैं। इस प्रकार जब चारों ओर आत्मप्रदेश फैल जाते हैं तब मथानी का प्राकार प्राप्त होता है और चौथे समय में खाली रहे हुए बीच-बीच के भाग को भरते हैं। इस प्रकार श्रात्म प्रदेशों से सम्पूर्ण लोकाकाश व्याप्त हो जाता है। पांचवें, छठे, सातवें और आंठवें समय में उन फेले हुए प्रदेशों को, जिस क्रम से फैलाया था उससे विपरीत क्रम से संकुचित करते हैं और भावे समय में प्रात्मप्रदेश ज्यों के त्यों शरीरस्थ हो जाते हैं। इस क्रिया से नाम, गोत्र और वेदनीय कर्मों की स्थिति कम होकर चारों कर्म समान स्थिति वाले हो जाते हैं । अन्तर्मुहर्त में मोक्ष प्राप्त करने वाले केवली ही यह समुद्घात करते हैं। जिन केवली भगवान् के चारों अघातिक कर्मों की स्थिति बराबर होती है उन्हें यह समुद्घात करने की आवश्यकता नहीं होती।

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