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मोक्ष-वरुप
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चाहिए । शंका को हृदय में बनाये रखना उचित नहीं है। जो पुरुष शंकित-चित रहता है उसकी स्थिर बुद्धि नहीं रहती। बुद्धि की अस्थिरता से वह संयम आदि के अनुष्ठान मै एकान नहीं हो सकता। हाँ, शंका भी श्रद्धापूर्वक ही होना चाहिए। श्रद्धापूर्वक शंका (प्रश्न ) करने से तत्त्वज्ञान की प्राप्ति होती है और अन्तःकरण निश्शल्य बनता है।
श्री भगवान् उवाच मूलः-अलोए पडिहया सिद्धा, लोयग्गे अपइट्ठिया ।
इहं बोदिं चइत्ता णं, तत्थ गंतूण सिझई ॥२६॥ छाया:-अलोके प्रतिहताः सिद्धा, लोकाग्रे च प्रतिष्ठिना।
__ इह शरीरं त्यक्त्वा तत्र गत्वा सिद्धयन्ति ॥ २६ ॥ शब्दार्थ:-सिद्ध भगवान् अलोक में रुक जाते हैं, लोक के अग्रभाग में स्थित है, इस लोक में शरीर को त्याग कर लोकान में जाकर सिद्ध होते हैं।
भाष्यः-पूर्व गाथा में किये हुए प्रश्नों के उत्तर प्रकृत गाथा में दिये गये हैं।
श्रात्मा जब लमस्त कर्मों से, चौदहवें गुणस्थान के अन्त में मुक्त होता है तब उसकी ऊर्ध्वगति होती है। कर्मरहित होते ही विग्रह गति के द्वारा एक ही समय में आत्मा लोकाकाश के अग्रभाग पर पहुँच जाता है और वहाँ पूर्ववर्णित सिद्धशिला पर विराजमान हो जाता हैं।
शंका:-जीव की गति कर्म के अधीन है। सिद्ध जीव समस्त कमी से रहित हैं। न उनमें गति नामकर्म का उदय है, न विहायोगति नामकर्म का उदय है, न असनामकर्म का ही उदय है। ऐसी स्थिति में उनमें ऊर्ध्वगति रूप चेष्टा किस प्रकार हो सकती है ? .
समाधान:-समस्त कर्मों का क्षय होने पर जीव में एक प्रकार की लघुता श्रा जाती है श्रतएव उसकी स्वभाविक ऊर्ध्वगति होती है इसके अतिरिक्त सिद्ध जीव की गति में निम्नलिखित कारण हैं:
(१) पूर्वप्रयोग-संसारमें स्थित आत्मा ने मुक्त प्राप्त करने के लिए बार-बार प्रणिधान किया था। मुक्त हो जाने पर उसके अभाव में भी पूर्व संस्कार के श्रावेश से ऊर्ध्वगति होती है। कुंमार चाक को घुमाता हैं । जब चाक मने लगता है तो वह घुमाना बंद कर देता है, फिर भी पहले के प्रयत्न से चाक घूमता रहता है। इसी प्रकार पूर्व प्रयत्न से सिद्ध जीव ऊर्ध्वगमन करते हैं।। . (२) असंगता:-सिद्ध जीव कमों के संसर्ग से रहित हो जाते हैं अतः उनका ऊर्ध्वगमन होता है। तूंथे पर मिट्टी का लेप करके उसे जल में छोड़ दिया जाय तो मिट्टी के लेप के कारण गुरुता होने से वह नीचे चला जाता है। काल-क्रम से मिट्टी अलग हो जाने पर हल्का हो जाने से तूंवा जल के उपर आ जाता है। इसी