Book Title: Nirgrantha Pravachan
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Jainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam

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Page 758
________________ - । ६६६ ] मोक्ष स्वरुप या नहीं ? अगर मोक्ष दुःखाभाव रूप नहीं है अर्थात् दुःखमय है तब तो वह संसार . से भिन्न नहीं है फिर संसार में और मोक्ष में अन्तर ही क्या रहा ? ऐसी स्थिति में .. कौन बुद्धिमान् पुरुष प्राप्त सुखों को त्याग करके दुःख रूप मोक्ष की प्राप्ति के लिए शीत, उष्ण, क्षुधा, पिपाला आदि के नाना कष्ट सहन करेगा ? मगर ज्ञानीजन संसार के सर्वोत्कृष्ट सुखों का त्याग करके भीषण कष्ट सहन करते हैं, इससे यह सिद्ध होता है कि मोक्ष सुखमय है। शंका-संसार में जो सुख है वे दुःखों से व्याप्त हैं । यहां थोड़ा-सा सुख है और बहुत दुःख है। मोक्ष में सुख नहीं है मगर दुःख भी नहीं है । दुःख से बचने के लिए थोड़े-से सुख का भी त्याग करना पड़ता है, क्योंकि उस सुख का त्याग किये विना दुःख ले बचना संभव नहीं है। अतएव योगीजन सुख प्राप्त करने के लिए नहीं वरन् दुःख से बचने के लिए ही मोक्ष की प्राप्ति में प्रवृत्त होते हैं। समाधान-दुःख से बचने की कामना भी कामना ही है । उस कामना से प्रेरित होकर प्रवृत्त होने वालों को भी मोक्ष की प्राप्ति नहीं होनी चाहिए। . दूसरी बात यह है कि बहुत सुख की प्राप्ति के लिए थोड़े सुख का त्याग करना तो उचित है मगर सुख का सर्वथा नाश करने के लिए थोड़े सुख का त्याग करना बुद्धिमत्ता नहीं है। जिन्हें विशेष सुख प्राप्त करने की इच्छा होती है वही दुःखमय सुख का परित्याग करते हैं । अगर मोक्ष में सुख का लमूल नाश हो जाता है तो उसे प्राप्त करने के लिए क्यों प्रवृत्ति की जाय ? विषयजन्य सुखों की अभिलाषा करने वाले पुरुष विषयभोगों की प्राप्ति के लिए अनेक प्रकार के सावध कार्य करते हैं, इस कारण वैषयिक सुखों की अभिलाषा पापरूप है। किन्तु मोक्ष-सुख की अभिलाषा करने वाले सावध कार्यों से विरत होते हैं श्रतएव मोक्ष-आकांक्षा पाप रूप नहीं है। इसके अतिरिक्त योगी जब अात्मविकास की उच्चतर स्थिति प्राप्त करता है तब उले मुक्ति की भी आकांक्षा नहीं रहती । इस लिए मोक्ष को सुख स्वरूप मानना ही युक्तियुक्त है। मूलः-सव्वं तो जाणइ पासए य, अमोहणे होइ निरंतराए। अणासवे माणसमाहिजुत्ते, अाउक्खए मोक्ख मुवेइ सुद्धे ॥ छायाः-सर्व ततो जानाति पश्यति च, अमोहनो भवति निरन्तरायः। . अनास्त्रको ध्यान समाधियुक्तः, श्रायुः चये मोक्षमुपैति शुद्धः ॥ २२ ॥ शब्दार्थ:-तत्पश्चात् जीव सब को जानता है, सब को देखता है, मोह रहित हो । जाता है, अन्तराय कर्म से रहित हो जाता है, आस्रव से रहित हो जाता है, शुक्लध्यान रूप समाधि में तल्लीन होता है और आयु कर्म क्षय करके मोक्ष प्राप्त करता है। भाष्यः-जय शान का श्रावरण करने वाले भानावरण कर्म का नाश होता है तव अनन्त केवलज्ञान प्रकट हो जाता है । ज्ञानावरण कर्म के क्षय के साथ ही दर्शना

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