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मनोनिग्रह रिक फल के लिए नहीं होता। इतना ही नहीं, शास्त्रकार तपस्या की शुद्धि के विषय में और भी कहते हैं:
तेसि पि तवो ण सुद्धो, निक्खंता महाकुला।
जन्ने वन्ने वियाणंति, न सिलोगं पवेषजए । अर्थात्:-जो लोग बड़े कुल में उत्पन्न होकर अपने तप की प्रशंसा करते हैं अथवा तप के फल-स्वरूप मान-बड़ाई की अभिलाषा करते हैं उनका भी तप अशुद्ध है। साधु को अपना तप गुप्त रखना चाहिए और अपने तप की श्राप प्रशंसा नहीं करनी चाहिए।
तात्पर्य यह है कि तप का प्रयोजन कों की निर्जरा करना है। अतएव निर्जरा के प्रयोजन से ही जो तप किया जाता है, वही उत्तम होता है। पूजा-प्रतिष्ठा, प्रसिद्धि
और कीर्ति की कामना से किया हुश्रा तप अशुद्ध है और उससे श्रात्म शुद्धि नहीं होती। श्रतः लोकैपणा का परित्याग करके यथाशक्ति शुद्ध माव से तप करना मुमुनु जीव का कर्तव्य है। मूल:-सो तवो दुविहो वुत्तो, बाहिरभितरो तहा॥
वाहिरो छविहो वुत्तो, एवमभितरो तवो ॥ ११ ॥ छाया:-तत्तपो द्विविधमु, वाहामाभ्यन्तरं तथा।
याचं पढविधमुक्त, एवमाभ्यन्तरं तपः ॥११॥ शब्दार्थः-वह तप सर्वज्ञ भगवान के द्वारा दो प्रकार का कहा गया है-(१) बाह्य तप और (२) प्राभ्यन्तर तप । बाह्य तप छह प्रकार का कहा गया है और याभ्यन्तर तप भी छह प्रकार का है।
भाप्यः-तप की महता प्रदर्शित करके, उसकी विशेष विवेचना करने के लिए शास्त्रकार ने यहां तप के दो भेद बताये हैं। बाय और प्राभ्यन्तर के भेद से तप दो प्रकार का है। दोनों प्रकारों के भी अवान्तर प्रकार छह-छह होते है।।
गाथा में 'सो' पद पूर्वगाथा में वर्णित तर का परामर्श करने के लिए है। अर्थात जिस तप में करोड़ों भवों में उपार्जित कमों को नष्ट कर देने की शक्ति विद्यमान है, वह तप दो प्रकार का है। . जो तप चाहा पदार्थों की अपेक्षा रखते हैं और जो पर को प्रत्यक्ष हो सकते है
या तप कहलाते हैं। मुख्य रूप से मन को संयत करने के लिए जिनका उपयोग होता है वह आभ्यन्तरता कहलाते हैं । यह वाह्य और श्राभ्यन्तर तप में भिन्नता है।
श्रवान्तर भेदों के नाम सांग स्वयं शास्त्रकार बतलाते हैं । मल:-अगसणमणोयारिया, भिक्खायरिया य रसपरिचायो।
कायकिलेसो संलीणया, य बन्झो तवो होई ॥ १२ ॥