________________
1
सोलहवां अध्याय
f ६१३ ]
भूति हो - जो आलोचक को सान्तवना एवं सुशिक्षा देकर समाधि उत्पन्न करने वाला हो और गुणग्राही हो, वही आलोचना सुनने का अधिकारी है ।
किसी का दोष जान कर जो उसका ढोल पीटें, उस दोष को प्रकट करके सर्वसाधारण में निन्दा करे अथवा जो दोषदर्शी हो, आलोचक के गुणों को न देख कर केवल मात्र दोषों को देखता हो, आलोचना करने की सरलता रूप गुण को भी जो न देखे और साथ ही जिसे शास्त्रीय ज्ञान पर्याप्त न हो वह आलोचना सुनने का अधिकारी नहीं है |
मूलः- भावणा जोगसुद्धप्पा, जले पावा व त्राहिया ।
नावा व तीरसम्पन्ना, सव्वदुक्खा तिउहह ॥ १४ ॥
छाया:- भावना - योगशुद्धात्मा, जले नौरिवाख्याता । नारिव तीरसम्पन्ना, सर्वदुःखात् त्रुट्यति ॥ १४ ॥
के
शब्दार्थः -- भावना रूप योग से जिसकी आत्मा शुद्ध हो रही है वह जल में नौका समान कहा गया है। जैसे अनुकूल वायु आदि निमित्त मिलने पर नौका किनारे लग जाती है उसी प्रकार शुद्धात्मा जीव समस्त दुःखों से मुक्त हो जाता है - संसार-सागर के किनारे पहुंच जाता है ।
भाष्यः - संसार को विशाल समुद्र की उपमा दी गई है । जैसे समुद्र को पार करके किनारे पहुंच जाना अत्यन्त कठिन होता है, उसी प्रकार संसार से छुटकारा पाकर मुक्ति का प्राप्त होना भी श्रतीव कठिन है । किन्तु उत्तम भावना के योग से जिनका अन्तःकरण शुद्ध हो जाता वह संसार के प्रपंचों को त्यागकर, जल में नौका के समान, संसार-सागर के ऊपर ही रहता है । जैसे नौका जल में डूबती नहीं है, उसी प्रकार शुद्ध अन्तःकरण वाला पुरुष संसार-सागर में नहीं डूबता है । जैसे कुशल कर्णधार द्वारा प्रयुक्त और अनुकूल वायु द्वारा प्रेरित नौका सब प्रकार के द्वन्द्वों से मुक्त होकर किनारे लग जाती है, इसी प्रकार उत्तम चारित्र से युक्त जीन रूपी नौका, श्रेष्ठ श्रागम रूप कर्णधार से युक्त होकर और तप रूपी पवन से प्रेरित होकर दुःखात्मक संसार से छूट कर समस्त दुःखाभाव रूप मोक्षं को प्राप्त होती है ।
तात्पर्य यह है कि वही पुरुष मुक्ति-लाभ कर सकते हैं, जिनका अन्तःकरण भावना योग से विशुद्ध होता है। वारह प्रकार की भावनाओं का वर्णन पहले किया जा चुका है । उनके पुनः पुनः- चिन्तन से भावना योग की सिद्धि होती है और उसीसे अन्तःकरण की शुद्धि होती हैं ।" अन्तःकरण की शुद्धि शाश्वत सिद्धि का मूल है।
मूल :- सवणे नाणे विण्णाणे, पच्चक्खाणे य संजये । चाहए तवे चैव वोदाणे अकिरिया सिद्धी ।। १५ ॥