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प्रहार हवा अध्याय
__ पाठवे गुणस्थान में जीव पांच वस्तुओं का विधान करता है। वे इस प्रकार हैं:- १) स्थितिघात ( २) र सत्रात ( ३ ) गुणश्रेणी (४) गुणसंक्रमण और (५) अंपूर्व स्थितिबंध।
(१) स्थितिषात जो कर्मदलिक आगे उदय में आने वाले हैं उन्हें अपवर्तनाकरण के द्वारा, उदय के नियत समय से हटा कर शीघ्र उदय में आने योग्य करदेना। अर्थात् ज्ञानावरण आदि कर्मों की लस्बी स्थिति को घटाकर थोड़ी करना।
१२) रसघातकों के फल देने की शक्ति को रसघात कहते हैं। तीन फल देने वाले कर्म दलों को मन्द रस देने वाला बना डालना रस घात कहलाता है। "
(३) गुणश्रेणी-जिन कर्म दालकों का स्थितिघात किया गया था उन्हें पहले अन्तमुहर्त में उदय होने योग्य बनाना गुणश्रेणी है।
४) गुणसंक्रमण-वर्तमान में बंधने वाली शुभ प्रकृतियों में, पहले बंधी हुई अशुभ प्रकृतियों का संक्रमण करदेना, अर्थात पहले जो अशुभ प्रकृतियां बंधी हुई थीं उन्हें वर्तमान में बंधने वाली शुभ प्रकृतियों के रूप में परिणत करलेना गुणसंक्रमण कहलाता है।
(५) अपूर्वस्थितिबन्ध-इतनी अल्प स्थिति वाले कमरे का बंध होना, जैसा कि पहले कभी नहीं हुआ था।
उल्लिखित पांच बातें यद्यपि पाठचे गुणस्थान से पहले भी होती हैं, मगर वहाँ उनकी मात्रा नगण्य सी होती हैं, आठवें गुणस्थान के परिणामों की विशुद्धता के कारण स्थितिघात आदि बहुत अधिक परिमारत में होता है, इसी कारण इस गुणस्थान में इनका उल्लेख किया जाता है।
(६) अनिवृत्तिवादग्गुणस्थान आठवें गुणस्थान में अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ, अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ, दर्शन मोहनीय की तीन प्रकृतियां, इन पन्द्रह प्रकृतियों का - उपशम श्रेणी वाले ने उपशम किया था और क्षपक श्रेणी वाले ने क्षय किया था इसके अनन्तर जब हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुपप्ला, इन छह नो कषायों का भी उपशम या क्षय हो जाता है तब नवां गुणस्थान प्राप्त होता है। इस गुणस्थान में संज्वलन का मंद उदय बना रहता है । इस गुणस्थान की भी स्थिति अन्तर्मुहूर्त ही है।
एक अन्तर्मुहूर्त में जितने समय होते हैं, नववें गुणस्थान में अध्यवसायस्थान भी उतने ही हैं। इस गुणस्थान में समसमयवर्ती सब जीवों के अध्यवसाय समान होते हैं । अतएव इस गुणस्थान संबंधी अध्यवसायों की उतनी ही श्रेणियां जितने समय की इस की स्थिति है। मगर प्रथम समयवर्ती अध्यवसायस्थान से द्वितीय समयवर्ती अध्यवसायस्थान अनन्तगुना अधिक विशुद्ध होता है । इसी प्रकार पूर्व पूर्व समय के अध्यवसायों की अपेक्षा उत्तरोत्तर संमय के अध्यवसाय विशुद्धत्तर ही