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अठारहवां अध्याय
. मुनिराज पधारे हैं। उनके दर्शन करने चलिए ।' सेठजी बोले-- सौभाग्य की बात है । चलिए, मैं भी चलता हूं।' इसी समय उनका मिथ्यात्वी सुनीम बोला ----सेठ साहब, आप कहां जाते हैं ? यह आवश्यक पत्र हैं, इनका आज ही उत्तर भेजना जरूरी है। मुजीम की बात सुनकर सेठजी काम में लग गये । वह श्रावक मुनिदर्शन करके वापस लौटा। तब सेठजी ने कहा- 'भाई, आप वन्दना कर थाये, मैं तो अब जाता हूं। ' इतना कहकर सेठजी वन्दना करने चले । इतने में मुनिराज वहां से विहार करके अन्यत्र चले गये थे । लेठजी जब वापस लौट रहे थे तो रास्ते में उन्मार्गगामी पाखराडी साधुवेषधारी व्यक्ति मिले। सेठजी ने उन्हें वन्दना की और सोचा- 'मेरे लिए वे और ये दोनों समान हैं ।' सेठजी की यह दृष्टि सम्यक मिथ्यादृष्टि है, क्योंकि उसमें सम्यक्त्व और मिथ्यात्व का सम्मिश्रण है ।
तृतीय गुणस्थान चाला जीव न संयम ग्रहण करता है, न देशनियम को स्वीकार करता है। वह नवीन आयु का बंध भी नहीं करता और न इस गुणस्थान में मृत्यु होती है । सम्यक्त्व अथवा मिथ्यात्व रूप परिणाम प्राप्त होने पर ही मृत्यु होती है ।
( ४ ) सम्यग्दृष्टि गुणस्थान- अनन्तानुबंधी कषाय और दर्शन मोहनीय कर्म के क्षय या उपशम होने पर श्रात्मा में शुद्ध दृष्टि जागृत होती है, उसे सम्यग्दृष्टि गुणस्थान कहते हैं । यह गुणस्थान प्राप्त होने पर आत्मा के परिणामों में अपूर्व निर्मलता श्री जाती है । उसे सतं असत का, कर्त्तव्य - प्रकर्त्तव्य का भी विवेक हो जाता है । यह अवस्था पाकर आत्मा अनुपम शान्ति का अनुभव करता है । इसमें श्रद्धा सम्यक हो जाती है ।
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अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्व मोहनीय, मिश्रमोहनीय और सम्यक्त्व मोहनीय, इन सात प्रकृतियों के नौ भंग होते हैं । वे इस प्रकार हैं: ( १ ) सातों प्रकृतियों का क्षय होने पर जो सम्यक्त्व होता है वह क्षायिक कहलाता है । ( २ ) सातों का उपशम होने पर होने वाला सम्यक्त्व औपशमिक कहलाता है । (३) चार अनन्तानुबंधी प्रकृतियों का क्षय हो और दर्शन मोह की तीन प्रकृतियों का उपशम हो [ ४ ] पांच प्रकृतियों का क्षय और दो का उपशम हो [ ५ ] छह प्रकृतियों का क्षय और एक का उपशम हो, इन तीन अंगों से होने वाला सम्यक्त्व क्षायोपशमिक कहलाता है । [६] चार प्रकृतियों का क्षय, एक का उपशम और एक का वेदन होने से [७] पांच का क्षय, एक का उपशम और एक का वेदन होने से [८] छह प्रकृतियों का क्षय और एक का वेदन होने पर तथा [६] छह का उपशम और एक का वेदन होने पर क्षायिक वेदक और औपशमिक वेदक सम्यक्त्व कहलाता है । तात्पर्य यह है कि चतुर्थ गुणस्थान प्राप्त करने के लिए उल्लिखित सात प्रकृतियाँ .का क्षय उपशम या कुछ का क्षय और कुछ का उपशम करना आवश्यक होता है । चौथे गुणस्थान का स्वरूप अन्यत्र इस प्रकार किया है
सत्तर उवसमदो, उवसमलम्मो खयादु खइओ य । विदियकसा उदयादो, असंजदो होदि सम्मो य ॥