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आवश्यक कृत्ये संसर्ग से हट जाता है और साम्यसुधा अजर-अमर पद का कारण हो जाती है।
त्रस और स्थावर जीवों को उपलक्षण समझकर अजीव पदार्थों का भी ग्रहण करना चाहिए। जैसे जीव मात्र पर समता भाव आवश्यक है उसी प्रकार इन्द्रियों के विषय रूप, रस, गंध, स्पर्श एवं शब्द आदि पर भी समभाव का होना आवश्यक है। मनोज्ञ विषयों में राग करना और अमनोज्ञ में द्वेष धारण करना हेय है । चित्त को इतना समभावी बनाना चाहिए किसी भी विषय पर राग या द्वेष, उत्पन्न न होने पावे।
इस प्रकार जीव और अजीव पदार्थों पर समभाव रखने वाला ही सच्ची सामायिक करता है । इस प्रकार की सामायिक के द्वारा ही आत्मा का कल्याण होता है। कहा है
कर्म जीवं च संश्लिष्ठं, परि ज्ञातात्मनिश्चयः ।
विभिन्नीकुरुते साधुः सामायिक शलाकया ॥ अर्थात् आत्मा के स्वरूप का ज्ञाता साधु पुरुष मिले हुए कर्म और जीव को सामायिक रूपी सलाई से जुदा-जुदा कर देता है।
साम्यभाव की महिमा अपार है। जिसके चित्त में सास्यभाव उदित हो जाता है वह किसी का शत्रु नहीं रहता और न कोई उसका शत्रु रह जाता है। साम्यभावी का वर्णन इस प्रकार किया गया है:.. निहन्ति जन्तवो नित्यं, वैरिणोऽपि परस्परम् ।
अपि स्वार्थ कृते साम्यभाज: साधोः प्रभावनः ।। अर्थात्-अपने हित के लिए साम्यभाव धारण करने वाले साधु के प्रभाव से, स्वभाविक वैरी प्राणी भी आपस में स्नह करने लगते हैं। अर्थात साधु पुरुप समताभाव अपने लिए धारण करता है, पर लाभ उससे अन्य प्राणियों को ही होता है. यह साम्यभाव का कितना माहात्म्य है।
समभाव के प्रभाव से ही तीर्थकर भगवान के समवशरण में सिंह और हिरन जैसे परस्पर विरोधी जीव एकत्र यैठते हैं । इस प्रकार समताभाव का माहात्म्य जानं कर, प्राणी मात्र पर 'सव्वभूअप्पभू' अर्थात् सर्वभूतात्मभूत प्रशस्त भाव धारण करना चाहिए । इस श्रेष्ठ भावना के विना सम्धी भाव सामायिक नहीं हो सकती।
शास्त्रकार ने स्वरूचि विरचितता दोष का परिहार करने के लिए कहा है'इट केवलि भासिय' अर्थात सर्वश भगवान ने इस २ प्रकार का कथन किया है, अतएव वह सर्वथा निःशंक है।
मूलः-तिरिणय सहस्सा सत्त सयाई, तेहुत्तरिं च ऊसासा।
एस मुहुत्तो दिट्ठो, सव्वेहिं अणंतनाणीहिं ॥ २० ॥