Book Title: Nirgrantha Pravachan
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Jainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam

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Page 718
________________ नरक-स्वर्ग-निरूपण तात्पर्य यह है कि इस समय जो मनुष्य पर्याय की प्राप्ति हुई है सो इसके लिए पूर्वजन्म में काफी पुण्याचरण करना पड़ा था। उस पुण्य का व्यय करके यह उत्तम पर्याय प्राप्त की है। इसे प्राप्त करके ऐसा प्रयत्न करना चाहिए, जिससे पुराय में वृद्धि हो । जीवन के अन्त में दरिद्रता न आने पाये। जो पुरुष ऐसा नहीं करते वे पूर्वोपार्जित पुण्य क्षीण होने पर घोर दुःख के पात्र बनते हैं। शील का पालन करना और ज्ञान आदि गुणों का उत्तरोत्तर विकास करना यही पुण्योपार्जन के साधन हैं । इन साधनों का प्रयोग करके जीवन को सार्थक बनाने की चेष्टा करनी चाहिए। साथ ही चारित्र पालन करते समय आने वाले दैनिक मानवीय श्रादि उपसर्गों से, तुधा, फिपाला, शीत, उष्ण आदि परिषहों ले जो पराभूत नहीं होते, कातरता का त्याग करके इन्हें दृढ़तापूर्वक सहन करते हैं, जो चित्त में दीनता नहीं आने देते, उन्हें जीवन की सन्ध्या के समय दीनता नहीं धारण करनी पड़ती। अतएव उक्त गुणों को धारण करके, देवगति की सामग्री एकत्र करके अन्त में मुक्ति लाभ का प्रयत्न करने में ही मानव जीवन की सफलता है। मूलः-विसालिसेहिं सीलेहि, जक्खा उत्तर उत्तरा। महा सुका व दिपंता, मरणंता अपुणच्चवं ॥२८॥ प्राप्पिया देवकामाणं, कामरूव वि उविणो । उड्ढे कप्पेसु चिट्ठति, पुव्वा वाससया बहू ॥२६॥ छाया.-विरदृशे : शाले, यक्षा उत्तरोत्तराः। महाशुक्ला इव दीप्यमानाः, मन्यमाना अपुनश्चवम् ॥ २८॥ अर्पिता देवकामान्, कामरूप वाक्रेरिणः । ऊर्व कल्पेषु तिष्ठन्ति, पूर्वाणि वर्षशतानि बहूनि ॥ २६ ॥ शब्दार्थः-विविध प्रकार के शीलों द्वारा प्रधान से प्रधान, महाशुक्ल अर्थात् चन्द्र मा के समान सर्वथा स्वच्छ, देदीप्यमान, फिर च्यवन न होगा। ऐसा मानते हुए इच्छित रूप बनाने वाले, बहुत से सैकड़ों पूर्व वर्ष पर्यन्त उच्च देवलोक में, दिव्य सुख प्राप्त करने के लिए सदाचार रूप व्रतों का अर्पण करने वाले देव बनकर रहते हैं। ___भाष्यः -यहां देवगति के कारणों का उल्लेख करते हुए शास्त्रकार ने देवलोक का लाधारण परिचय कराया है। 'जो पुरुष विविध प्रकार के शील का अनुष्ठान करता है उसे स्वर्ग की प्राप्ति होती है। स्वर्ग के देव विमानों में निवास करते हैं। देवों में अत्यन्त श्रेष्ठ और चन्द्रमा के समान चमकदार होते हैं। उनकी दीप्ति अनुपम होती है। जैसे मनुष्यों में शैशव, वाल्य, वृद्ध आदि विभिन्न अवस्थाएँ होती हैं वैसे देवों में नहीं। देव उत्पन्न होते ही बहुत शीघ्र तरुण अवस्था को प्राप्त कर लेते हैं और

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