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अठारहवां अध्याय .
विनय का सामान्य विवेचन पहले किया जा चुका है । अतएव यहां विनीत का स्वरूप बतलाया जाता है ।
जो अपने गुरुजनों की प्राक्षा का पालन करता है, उनके समीप रहने में अपना. अहोभाग्य समझता है, जो उनकी विधि या निषेध को सूचित करने वाली भ्रकुटि आदि चेष्टाओं को तथा मुख आदि की प्राकृति को भलीभांति समझता है और उन्हीं के अनुसार प्रवृत्ति करता है, वह विनीत पुरुष कहलाता है।
शिष्य का धर्म दे-गुरु का अनुसरण करना । कदाचित् ऐसा अक्सर श्रा सकता है जब गुरु के आदेश का रहस्य शिष्य की समझ में न आवे । उस समय वह उनके श्रादेश के विरुद्ध अपनी बुद्धि का प्रयोग करे तो वह विनयशील नहीं कहलाता। गुरु के आदेश में तर्क-वितर्क को अवकाश नहीं होता। गुरु बनाने से पहले उनके गुरुत्व की समीचीन रूप से परीक्षा कर लेना उचित है, पर परीक्षा की कसौटी पर कस लेने के पश्चात, गुरु रूप में स्वीकार कर लेने पर श्रालस्य के वशीभूत होकर, उद्दण्डता से प्रेरित होकर या अश्रद्धा की भावना से उनकी आज्ञा का उल्लंघन करना उचित नहीं है। सच्चा सैनिक अपने सेनापति की श्राझा का उल्लंघन नहीं करता। ग्राक्षा उल्लंघन करने वाला कठोर दण्ड का पात्र होता है। इसी प्रकार विनीत शिष्य अपने गुरु की श्राक्षा का उल्लंघन नहीं करता। आशा-उल्लंघन करने वाले शिष्य को संयम रूप जीवन से हाथ धोना पड़ता है। आजापालन, प्रगाढ श्रद्धा का सूचक है। जिस शिष्य के हृदय में अपने गुरु के प्रति गाद श्रद्धा होगी उसे उनकी आजा की . हितकरता में संशय नहीं हो सकता। श्रद्धालु शिष्य यही विचार करेगा कि-'भले ही गुरुजी की शाजा का रहस्य मेरी समझ में नहीं पाता, फिर भी उनकी श्राजा अहित. कर नहीं हो सकती। इसमें अवश्य ही मेरा हित समाया हुआ है। इस प्रकार विचार कर वह तत्काल भाजापालन में प्रवृत्त हो जायगा । जिसके अन्तःकरण में अपने गुरु के प्रति प्रगाढ श्रद्धाभाव विद्यमान नहीं है, वह अध्यात्म के दुर्गम पथ का पथिक नहीं बन सकता। आध्यात्मिक साधना में अनेक अज्ञेय रहस्य सनिहित रहते हैं, जिन्हें उपलब्ध करने के लिए सर्वप्रथम गुरु के आदेश पर ही अवलम्पित रहना पढ़ता है। उन रहस्यों को सुलझाने के लिए जिस दिव्य दृष्टि की आवश्यकता है वह यकायक प्राप्त नहीं होती। वह दृष्टि नेत्र चन्द करके गुरु के आदेश का पालन करने पर ही प्राप्त होती है। अतएव साधनाशील शिष्य को गुरु के आदेश का पालन अव. श्यमेव करना चाहिए।
विनीत शिष्य का दूसरा लक्षण है-गुरु के समीप रहना । शिष्य का दूसरा पर्यायवाची शब्द 'अन्तेवासी है । गौतम स्वामी भगवान महावीर के 'अन्तवासी थे
और जम्बू स्वामी श्रार्य सुधर्मा स्वामी के 'अन्तरासी' थे। यद पर्याय शब्द ही इस यात को सूचित करता है कि गुरु के समीप वास करना शिष्य का कर्तव्य है। यन्ते. वासी या निकट निवासी दो प्रकार के होते हैं-द्रव्य से और भार से । शरीर से गुर महाराज की सेवा में उपस्थित रहने वाला द्रव्य अन्तेवासी । जो शिष्य अपने