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अठारहवां अध्याय हाथ जोड़कर प्राचार्य महाराज का कोप शान्त करना चाहिए ।
श्राचार्य केवल मधुर भाषण एवं विनम्रता-प्रदर्शन से ही प्रसन्न नहीं होते। उनके कोप का कारण शिष्य का अनुचित प्राचार होता है। अतएव जब तक पुनः वैसा आचार न करने की प्रतिजा न की जाय तब तक कोप का कारण पूर्ण रूप से दूर नहीं होता। इसलिए शास्त्रकारने यह बताया है कि शिष्य को 'ण पुणत्ति' फिर ऐसा आचरण न करूँगा, यह कहकर प्राचार्य को अश्वासन देना चाहिए।
श्राचार्य का कोप शिष्य के पक्ष में अत्यन्त अहितकर होता है । श्रतएव श्राचार्य की अवहेलना करके उन्हें कुपित करना योग्य नहीं है। प्राचार्य की अवहेलना के संबंध में शास्त्र में लिखा है
सिया हु से पावय तो डोजा, यासीविलो वा कुवियो न भक्खे । सिया विसं हालहलं न मार, न यावि मोक्खो गुरुहीलणाए ॥
अर्थात-स्पर्श करने पर भी कदाचित् श्रग्नि न जलावे, कुपित हुआ सर्प भी कदाचित् न इसे और कदाचित् हलाहल विष से मृत्यु न हो, मगर गुरु की अवहेलना करने से मुक्ति की प्राप्ति कदापि संभव नहीं है । तथा
जो पव्वयं सिरसा भेजुमिच्छ, सुत्तं व सीहं पडि बोहरजा।
जो या दए सात्ति-अम्गे पहार, एसोवमाऽऽसायणया गुरुणं ॥ अर्थात्-गुरु की त्रासातना करना मस्तक मार कर पर्वत को फोड़ने के समान है, सोते हुए सिंह को जगाने के समान है अथवा शक्ति नामक शस्त्र की तीक्ष्ण धार पर हाथ-पैर का प्रहार करने के समान अनर्थकारक है । श्रतएव
जस्तंतिए धम्मपाय सिक्ने, तस्संतिए वेणइयं पडंजे। .
सरकारए सिरसा पंजलीओ, फायनिगरा मो मणला अनिच्चं ॥ अर्थात्-जिससे धर्म शास्त्र सामने उसके सामने विनयपूर्ण व्यवहार करना चादिप । मस्तक झुकाकर, हाथ जोडकर, मन, वचन, काय से उसका सत्कार करना चाहिए।
धर्मशस्त्र के इस विधान से प्राचार्य की भक्ति की महत्ता स्पष्ट हो जाती है। अतएव अपने कल्याण की कामना करने वाले शिष्य को गुरु का समुचित विनय करना चाहिए और अपने अनुकूल सद्व्यवहार से प्रसन्न रखना चाहिए। मूल:-एच्चा एमइ मेहावी, लोए कित्ती से जायइ ।
हवइ किच्चाण सरणं, भूयाणं जगई जहा ॥ १५ ॥ स्वाया:-मारवा नमति मेधावी, लोके कीपिस्वन्य जायते।।
भवति चानां शराम जगत यथा ॥ १५ ॥ शब्दार्थ:-विनय के सम्यक स्वरूप को जानकर बुद्धिमान पुनप को विनयशील होना चाहिए। इससे लोक में उसकी शीशि होती है। जैसे प्राणियों का आधार पृथ्वी