Book Title: Nirgrantha Pravachan
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Jainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam

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Page 736
________________ - - ...६७४ मोक्ष स्वरुष एवायरियं उवाचिट्ठ, इजा, . अणंतनाणोवगो वि संतो ॥१३॥ छाया:-यथाsहिताग्निचलनं नमरूति नानाऽऽहुतिम पदाभिविनम् । एवमाचार्यमुपतिष्ठेत् , अन तज्ञानोपगतोऽपि सन् ॥ १३ ॥ शब्दार्थ:-जैसे अग्निहोती ब्राह्मण, नाना प्रबार की घृत-प्रक्षेप रूप आहुतियों एवं मंत्रों से अभिषेक की हुई अग्नि को नमस्कार करता है, इसी प्रकार अनन्त ज्ञान से युक्त होने पर भी शिष्य को आचार्य की सेवा करनी चाहिए। __ भाष्यः-प्रकृत गाथा में उदाहरण पूर्वक श्राचार्य-विनय का विधान किया गया है । जैले अग्निहोत्री ब्राह्मण अपने घर अग्नि की स्थापना करता है और घृत, दुग्ध, मधु श्रादि पदार्थों की पाहुति देकर 'अग्नये स्वाहा' इत्यादि प्रकार के मंत्रपदों से अग्नि का अभिषेक करता है और अग्नि की पूजा करके उसे नमस्कार करता है, इसी प्रकार शिष्य अपने आचार्य की यत्न से सेवा-भक्ति करे । उदाहरण एकदेशीय होता है, अतएव यहां इतना अभिप्राय लेना चाहिए कि जैसे अग्निहोत्री ब्राह्मण अत्यन्त भक्तिभाव से अग्नि का आदर-सेबन करता है उसी प्रकार शिष्य को श्राचार्य महाराज की विनय-भक्ति करनी चाहिए 'अणतणाणोबगो वि संतो' अथात् अनन्तज्ञानी होने पर भी, आचार्य की भक्ति का जो विधान किया गया, है, सो यहां प्रणत जान का अर्थ केवलजान नहीं समझना चाहिए । केबलो पर्याय की प्राप्ति होने पर बन्ध-बन्दक भाव नहीं रहता । अनंत पद से अनन्त पर्यायों वाली होने से 'वस्तु अर्थ लिया गया है। उसे जानने वाले विशिष्ट ज्ञान का ग्रहण करना चाहिए । तात्पर्य यह है कि शिष्य कितना ही विशिष्ट ज्ञानी क्यों न होजाय, फिर भी उसे प्राचार्य का विनय अवश्य करना चाहिए। मूलः-शायरियं कुवियंणच्चा, पत्तिएण पसायए । विज्झवेज पंजलिउडो, वइजण पुणति य ॥ १४ ॥ छाया:-प्राचार्य कुपितं ज्ञात्वा, श्रीत्या प्रसादयेत् ।। विध्यापयेत् प्राञ्जलिपुटः, वदेश पुनरिति च ॥ १४ ॥ शब्दार्थः-आचार्य को कुपित जानकर प्रीतिजनक शब्दों से उन्हें प्रसन्न करना चाहिए हाथ जोड़कर उन्हें शान्त करना चाहिए और 'फिर ऐसा न करूँगा' ऐसा कहना चाहिए। भाष्यः-शिष्य का कर्तव्य यह है कि वह विनय के अनुकूल ही समस्त व्यवहार करे । किन्तु कदाचित् असावधानी से भूल में कोई कार्य ऐसा हो जाय, जिससे भाचार्य के क्रोध का भाजन बनाना पड़े, तो उस समय शिष्य के प्रीतिजनक वचन कहकर प्राचार्य को प्रसन्न कर लेना चाहिए। प्राचार्य जव कुपित हो तो शिष्य भी मुंह लटकाकर एक किनारे बैठ जाय, यह उचिंत नहीं है उसे विनयपूर्वक दोनों ।

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