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मोक्ष- स्वरुप
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श्रावश्यक है । जिसे यह भेद प्रतीति हो जाती है वही सम्यग्दृष्टि कहलाता है । सम्यदृष्टि से पहले जो जड़-दशा होती है, जिसमें श्रात्मा श्रनात्मा का विवेक नहीं, श्रात्मा की अमरता का विचार नहीं और सत-सत का परिज्ञान नहीं होता, वह मिथ्यात्व दशा कहलाती है ।
शास्त्रों में आत्मा का विकास क्रम चौदह गुणस्थानों के रूप में वर्णित किया गया है । उल्लिखित विकास कम गुणस्थानों का ही एक प्रकार से कम हैं । तथापि सुगमता 'के लिए यहां गुणस्थानों का भी दिग्दर्शन करा दिया जाता है । गुणस्थान चौदह हैं और आत्मा निम्नतय अवस्था से उच्चतम अवस्था में किस क्रम से पहुंचता है, यह जानने के लिए उनका जानला अत्यावश्यक है ।
मोह और योग के कारण होने वाली आत्मा की दर्शन, ज्ञान और चारित्र की श्रवस्थानों की तरतमता को गुणस्थान कहते हैं । गुण शब्द से यहां आत्मा की शक्तियों का ग्रहण किया गया है और स्थान स शब्द का अर्थ है अवस्था । यद्यपि सभी आत्माओं का स्वभाव एक सरीखा शुद्ध चैतन्य, अनन्त सुख रूप है, फिर भी उनके ज्ञान और चतन्य पे जो अन्तर पाया जाता है वह भौपाधिक है कर्मजन्य है । कर्मों की तरतमता के कारण ही आत्माओं के ज्ञान आदि में तारतम्य पाया जाता है । जैसे मेघपटल से सूर्य का प्रकाश श्राच्छादित हो जाता है और जैसे-जैसे मेघ छंटते जाते हैं तैसे-तैसे सूर्य का प्रकाश बढ़ता जाता है । इसी प्रकार कर्म रूपी मेघ ज्योंक्यों हटते हैं त्यों-त्यों श्रात्म शक्ति रूपी सूर्य का प्रकाश बढ़ता जाता है । जब कर्मों का आवरण अत्यन्त तीव्र होता है तब श्रात्मा अत्यन्त अविकसित अवस्था में रहता है और जब आवरणों का पूर्ण रूप से विनाश हो जाता है तब आत्मा अपने विकास की चरम सीमा को अर्थात विशुद्ध स्वरूप को प्राप्त करलेता है । श्रवरणों की तीव्रतम अवस्था को मिथ्यात्वदशा और विकास की चरम दशा को सिद्ध दशा कहा जाता । निम्नतम दशा से उच्चतम दशा प्राप्त करने में अनेक माध्यमिक दशाएं पार करनी पड़ती हैं । यह दशाएँ एक ग्रात्मा के लिए भी असंख्य हैं और उन्हें शब्दों द्वारा कहना संभव नहीं है । अतएव स्थूल दृष्टि से समस्त अवस्थाएँ चौदह विभागों में विभक्त की गई हैं । उन्हीं को चौदह गुणस्थान कहते हैं ।
चौदह्न गुणस्थानों के नाम इस प्रकार हैं, -- (१) मिध्यादृष्टि (२) सास्वादन (३) सम्यक् - मिध्यादृष्टि (४) अविरत सम्यक दृष्टि (५) देशविरति (६) प्रमत्तसंयत (७) श्रप्रमत्त संयत (८) निवृत्ति बादर गुणस्थान अपूर्वकरण (६) निवृत्ति वादर गुण स्थान ग्रनिवृत्ति करण (१०) सूक्ष्म सम्पराय (११) उपशान्तमोह (१२) क्षीणमोह (१३) संयोग केवली और (१४) प्रयोग केवली ।
गुणस्थानों का स्वरूप समझने के लिए इतना जान लेना चाहिए कि प्रारंभ के चार गुणस्थान दर्शन मोहनीय कर्म के निमित्त से, पांचवें से लगाकर बारहवें गुण स्थान तक चारित्र मोहनीय के निमित्त से और अन्तिम दो गुण स्थान योग के