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[ ६७७ तपस्या द्वारा कर्मों का लमूल क्षय करके सिद्धि प्राप्त करता है। मूलः-अस्थि एगं धुवं ठाणं, लोगग्गंमि दुरारुहे ।
जत्थ नत्थि जरा मच्चू, वाहिणो वेयणा तहा ॥१७॥ छाया:-अस्त्येकं ध्रुवं स्थान, लोकाग्रे दुसरोहम् ।।
यन नास्ति जरामृत्यु, व्याधयो वेदनास्तथा ॥ १७॥ शब्दार्थ:-- हे गौतम ! लोक के अग्रभाग में एक ऐसा स्थान है जिस पर आरोहण करना कठिन है, जहां जरा नहीं है, मृत्यु नहीं है व्याधियां नहीं हैं और वेदनाएँ नहीं हैं।
भाष्यः-पूर्वगाथा में विनय के फल का दिग्दर्शन कराते हुए शाश्वत सिद्ध होना कहा गया था। वे सिद्ध कौन हैं ? कहां हैं ? इत्यादि प्रश्नों का समाधान करने के लिए प्रकृत गाथा कही गई है।
चौदह राजू विस्तार वाले पुरुषाकार लोक के अप्रभाग में, लििसद्ध विमान से बारह योजन ऊपर, पैंतालीस लाख योजन की लम्बी-चौड़ी, गोलाकार, मध्य में पाठ योजन मोटी और फिर चारों ओर से पतली होती-होती किनारों पर थतीव पतली, एक करोड़, बयालीस लाख, तीस हजार, दो सौ उनपचास योजन के घेरे चाली, श्वत वर्ण की छत्राकार एक जगह है, जिसे सिद्धशिला कहते हैं। सिद्धाशला के बारह नाम शागम में बताये गये हैं । जैसे-(१ ) ईयत् (२) ईपत्मागमार (३) तन्वी (४) तनुतरा (५) सिद्धि (६) सिद्धालय (७) सुक्ति (८) मुन्नालय (६) ब्रह्म (१०) ब्रह्मावतंसक (११) लोक प्रतिपूर्ण और ( १२ ) लोकान चूलिका ।
सिद्धशिला से एक योजन ऊपर, मनुष्यलोक की सीध में, पैंतालीस लाख योजन विस्तृत एवं तीन सौ देतीस धनुष तथा बत्तीस शंगुल प्रमाण क्षेत्र में सिद्ध भगवान् विराजमान हैं।
सिद्ध भगवान् वह है जिन्होंने समस्त कर्मों का क्षय करके आत्मा को सर्वक्षा शुद्ध करलिया है। प्रात्मा की पूर्ण विशुद्धि का क्रम दशवैज्ञालिक सूत्र में, सरलता यौर संक्षेप पूर्वक इस प्रकार बतलाया गया है।
जया जीवमजीवेच. दो वि एए रियाणा
तया गई बहुविह, सन्यजीवाण जाण ॥ अर्थात-जीव को सर्वप्रथम जम जीव और अजीव का या आत्मा-नारमा का पार्थस्य शान होता है, यह जय पुद्गल आदि से भात्मा को भिन्न समझने लगतर है, तब उसे जीवों की अनेक गत्तियों का भीमान हो जाता हैं।
जया गई बशिर्ट, सय जीवाए जाण ।
त्या पुरणं च पायं च, बंधं मुम् च जाण ॥ सर्थात--जीव को जय यह विदित हो जाता है कि, जीव नाना गतियों में