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मोक्ष स्वरुप बचते रहने के लिए लदा उद्यत रहना संत पुरुष का लक्षण है। मूढ़ पुरुष अपने अपराध को छिपाने का प्रयत्न करता है और हितैषी गुरुजनों के समझाने पर उनसे द्वेष करने लगता है। सुलः अभिनखणं कोही हवइ, पबंधं च पकुवई ।
मेत्तिज्जमाणो वमइ, सुयं लभ्रूण मज्जइ ॥६॥ अवि पावपरिक्खेवी, अवि मित्तेसु कुप्पइ । सुपियस्ता वि मित्तस्त, रहे भासइ पावगं ॥७॥ पइराणवाई दुहिले, थद्धे लुद्धे प्राणिग्गहे। असंविभागी प्रवियत्ते, प्राविणीए ति बुच्चई ॥८॥ लाया:-अभीक्षणं क्रोधी भवति, प्रबन्यञ्च प्रकरोति ।
मैत्रीयम णो वमति, श्रुतं लब्ध्वा माद्यति ॥ ६ ॥ अपि पापपरिक्षपी, अपि मित्रेभ्यः कुप्यति । सप्रियस्यापि मिनस्य, रहसि भापते पापकम् ॥७॥ प्रकीर्णवादी द्रोहशीलः, स्तन्धो लुब्धोऽनिग्रहः।
असंविभाग्या प्रीतिकरः, अविनयी त्युच्यते ॥८॥ शब्दार्थः-जो पुरुष बारम्बार क्रोध करता है, कलह करने वाली बात कहता है, . मैत्री का वसन करता है, शास्त्रज्ञान पाकर मद करता है, गुरुजनों की साधारण भूल की निन्दा करता है, हितैषी-मित्रों पर कुपित होता है, परोक्ष में अत्यन्त प्रिय मित्र के दोषों को उघाड़ता है, असंबद्ध भाषण करता है, द्रोह करने वाला होता है, अभिमानी होता है, जिह्वा आदि इन्द्रियों के विषयों में लुब्ध होता है, अपनी इन्द्रियों का विग्रह नहीं करता, जो संविभाग करके-बँटवारा करके वस्तुओं का उपयोग नहीं करता, कोई बात पूछने पर भी अस्पष्ट भाषण करता है, वह अविनीत कहलाता है।
: भाष्य-अविनीत किसे कहना चाहिए ? अथवा अविनय का त्याग करने के लिए किन-किन दुर्गुणों का त्याग करना आवश्यक है, यह विषय प्रकृत गाथाओं में . स्पष्ट किया गया है। निम्नलिखित दुर्गुण अविनीत के लक्षण हैं:
' (१) सदा क्रोधी होना-बात-बात पर नाक भौं सिकोड़ना, छोटी एवं तुच्छ बातों पर भी क्रोध करते रहना।
(२) कलह उत्पन्न करने वाला भाषण करना । संघ में, गण में, कुल में, तथा देश में, जाति में या अन्य किसी भी समूह में अनेकता उत्पन्न करने वाली, एरस्पर संघर्ष उत्पन्न कर देने वाली, लड़ाई-झगड़ा जगा देने वाली बातें कहना या ऐसा प्रयत्न करना।