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अठारहवां अध्याय
[ ६७३ ] शब्दार्थः-गुरुजनों का तिरस्कार न करनेवाला, कलहजनक बात न कहने वाला, मित्रता को निभाने वाला, श्रुत का लाभ कर के अहंकार न करने वाला, अपनी भूल को दूसरोंपर न गेरने वाला, मित्रों पर क्रोध न करने वाला, अप्रिय मित्र के परोक्ष में भी गुणानुवाद करने वाला, वायुद्ध एवं कायिक युद्ध से दूर रहनेवाला, तत्वज्ञ, कुलीनता आदि गुणों से युक्त, लज्जाशील और इन्द्रिय विजेता पुरुष सूविनीत कहलाता है ।
भाष्यः-विनीत के चार लक्षण पूर्व गाथा में वतलाये गये थे। प्रकृत गाथाओं में शेष ग्यारह लक्षण बतलाये हैं। वे इस प्रकार हैं:
(५ ) अधिक्षेप न करना-'ज्ञान आदि गुणों से श्रेष्ट गुरुजनों का अपमानतिरस्कार न करना।
(६) प्रबंध अर्थात् कलह उत्पन्न करने वाली बात न कहना ।
(७) मैत्री करने पर उसका वमन न करना भर्थात् मैत्री का भलीभांति निर्वाह करना।
(८) शास्त्र का ज्ञान प्राप्त करके अभिमान न करना ।
(६) पाप परिक्षेपि अर्थात् गुरुजनों की साधारण-सी भूल को सर्वत्र फैलाने वाला न हो।
हितैपी-मित्रों पर, उनके हितोपदेश देने पर या किसी अनुचित कार्य से रोकने पर कुपित न होना;
(११) श्रप्रिय मित्र अगर सामने न हो तो भी उसका गुणानुवाद करना अर्थात् गुणग्राही होना, किसी की प्रत्यक्ष में या परोक्ष में निन्दा न करना।
(१२) वाचनिक युद्ध कलह कहलाता है और कायिक युद्ध डम्बर कहलाता है। इन दोनों का त्याग करना ।
(१३ ) कुलीनता के योग्य गुणों से युक्त होना ।
(१४ लज्जावान् होना बड़े-बूढ़े के सामने निर्लजता पूर्वक हंसी-दिलगी, यातचीत प्रादि न करना।।
(१५) इन्द्रियों पर अंकुश रखना।
इन पन्द्रह लक्षणों से सम्पन्न पुरुष विनीत कहलाता है । इस लोक और पर. लोक-दोनों में सुख-शान्ति प्राप्त करने का सरल उपाय विनय । अतएव विनय के उफ्त लक्षणों को धारण कर विनीत बनना चाहिए। सूल:-जहा हि अग्गी जलणं नमसे,
नाणाहुई मंतपयाहिसत्तं