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अठारहवां अध्याय
[ ६६७ भाष्यः-विनीत शिष्य के लक्षणों का कथन करने के पश्चात् उसके कर्तव्यों का निरूपण करने के लिये यह गाथा कही गई है। .
पंडा अर्थात् हित-अहित का विवेचन करने वाली बुद्धि जिसे प्राप्त हो यह एशिडत कहलाता है। पंडित अर्थात विवेकी शिष्य, गुरु द्वारा अनुशासन करने पर-शिक्षा देने पर क्रोध न करे वरन क्षमा का सेवन करे । उसे मिथ्यादृष्टियों का संसर्ग भी नहीं करना चाहिए और हंसी मजाक एवं खेल-तमाशे का भी त्याग करना चाहिए।
गुरु यद्यपि शान्ति के सागर और क्षमा के भंडार होते हैं, वे अपने शिष्य की दुर्बलताओं को भलीभांति समझते हैं, तथापि कभी प्रशस्त क्रोध के वश होकर, शिष्य पर अनुग्रह-वुद्धि होने के कारण कुपित हो जावे अथवा कुपित हुए बिना ही शिष्य को संयम-मार्ग पर आरूढ़ करने के लिये शिक्षा देवे-अनुशासन करें तो उस समय शिष्य को क्रोध नहीं करना चाहिए । उसे क्षमा भाव धारण करके विचारना चाहिए फि-' गुरु महाराज का मुझ पर अत्यन्त अनुग्रह है जो वे मुझे संयम से विचलित होने पर पुनः संयमारूढ़ करने का प्रयत्न करते हैं। मेरे व्यवहार से उनके ज्ञान-ध्यान में बाधा उपस्थित हुई, परन्तु वे मेरे ऐसे अलौकिक उपकारी हैं कि मेरा अनुशासन करते हैं। धन्य है गुरुदेव की परहितकरता! धन्य है उनका अनुग्रह ! उन्होंने मुझे उचित ही शिक्षा दी है । यह शिक्षा मेरे लिए उपकारक होगी । मैं उनका अनुगृहीत हूं। आगे इस प्रकार का अपराध करके उनका चित्त नब्ध नहीं करूंगा ! ' इस प्रकार सोचकर शिष्य को क्षमा का सेवन करना चाहिए ।
जो पुरुप क्षुद्र है-अज्ञानी एवं मिथ्यादृष्टि है उनकी संगति का त्याग करना चाहिए । • संसर्गजा दोष गुणा-भवन्ति ' अर्थात् संसर्ग से अनेक दोप और गुण श्रा जाते हैं । सत्पुरुषों की संगति से गुणों की एवं क्षुद्र पुरुषों के संसर्ग से दोपों की उत्पत्ति होती है।
- असत्संगति के समान हास्य और फ्रीड़ा का भी त्याग करना आवश्यक है। हास्य नो कपाय चारित्र मोहनीय कर्म के उदय से होने वालेभाव को इंसी कहते हैं
और मनोरंजन के लिए की जानेवाली क्रिया-विशेप कीड़ा है। सुयोग्य शिष्य को इनका आचरण नहीं करना चाहिए । हस्य आदि के प्रयोग से मिथ्या भाषण आदि अनेक दोषों का प्रसंग आता दे, अनर्थदण्ड होने की संभावना रहती है और शासन के गौरव को क्षति पहुंचती है। मूलः प्रासणगो न पुच्छिन्ना,
ऐव सेजागनो कयाइ वि । आगम्मुक्कुडयो संतो,
पुच्छिज्जा पंजली उडो ॥ ३ ॥