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স্বপ্ন স্থা
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भाष्यः---यहां भी नरकपाल असुरों द्वारा पहुंचाई जाने वाली पीड़ा कर दिग्दर्शन कराया गया है।
नरकपाल जारकी जीवों को उन्हीं का रक्त नर्स कढ़ाई में डाल उन्हें पकाते हैं। उस कढ़ाई में जो आँधे पड़ते हैं उन्हें सीधा करते हैं, जो सीधे पड़ते हैं उन्हें औंधा करते हैं ! इस प्रकार इधर-उधर उलट-पुलट कर अत्यन्त क्रूरता के साथ पकाते हैं। जारकी जीवों का शरीर जलन के कारण सूझ जाता है। उनका सिर कुचल कुचल कर चूर्ण कर डाला जाता है।
जीवित मछली को कढ़ाई में पकान पर जैसी वेदना उसे होती है, उसी प्रकार की दुःसह वेदना नारकी जीवों को होती है। उस वेदना के कारण वे छटपटाते रहते हैं। मगर जिन्होंने पूर्वभव में अपने पापी पेट की पूर्ति के लिए अन्य जीवों को मार कर उनका मांस पकाया था, उन्हें नरक में जाकर इस प्रकार स्वयं पकना पड़ता है। वहां उनका कोई रक्षक नहीं होता, किसी का शरण नहीं मिलता । अपने पूर्वकृत पापों का फल भोगे विना उन्हें छुटकारा नहीं मिलता। क्षण भर के रसास्वाद के लिए प्राणी हिंसा करने वालों को दीर्घकाल पर्यन्त इस प्रकार की यातना सहनी पड़ती है। मूलः-नो वेव ते तत्थ मसीभवति,
ण मिज्जती तिव्वाभिवेयणाए । तमाणुभागं अणुवेदयंता,
दुक्खंति दुक्खी इह दुक्कडेणं ॥८॥ छाया:-नो चैव ते तत्र सपीभवन्ति, न प्रियन्ले तीवाभिवंदनामि।
तदनुभाग मनुवेदयन्तः, दुःख्यन्ति दुःखिन हह दुष्कृतेन् ॥६॥ शब्दार्थः--नारकी जीव नरक की अग्नि में जलकर भस्म नहीं हो जाते और न नरक की तीन वेदना से सरते ही हैं। पूर्वभव में किये हुए पापों का फल भोगते हुए अपने ही पाप के उदय के कारण वे दुःख पाते रहते हैं।
भाष्यः--पूर्व गाथा में नारकी जीवों को एकाने का कथन किया गया है और आग में जलाने का भी वर्णन किया जा चुका है । अतएव यह आशंका हो सकती हैं कि इस प्रकार जलाने और पकाने पर उनकी मृत्यु क्यों नहीं हो जाती या ये जलकर भस्म स्यों नहीं हो जाते ?
इस आशंका का यह समाधान किया गया है। घोर से बोर वेदना भोगने पर भी न चे मरते है और न भस्म ही होते हैं। उन्होंने पूर्वभव में जो पाप-कृत्य किये हैं उनका फल भोगते हुए वे नरक में ही रहते हैं और अपनी शायु सम्पूर्ण करके ही वा से निकलते हैं। 'स्वयं रुतं कर्म यदात्मना पुरा, पालं तदीयं लभते शुभाशुभम्' अर्थात् चंहले श्रात्मा ने शुभ या अशुभ जैसे कर्म किये हैं, उनका वैसा ही शुभ या अशुभ फल