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सत्तरहवा अध्याय
[१४४ म खूल:-दसहा उ भवणवासी, अट्टहा वण चारिणो।
पंचविहा जोइसिया, दुविहा वेमाणिया तहा ॥ १५ ॥ छायाः-दशधा तु भवन वासिनः, अष्टधा वन चारिणः ।
पञ्चविधा ज्योतिप्काः, द्विविधौ वैमानिको तथा ॥ १५ ॥ शब्दार्थः-भवनवासी देव दस प्रकार के हैं, वाणव्यन्तर आठ प्रकार के हैं, ज्यो- तिष्क देव पांच प्रकार के हैं और वैमानिक देव दो प्रकार के हैं।
भाष्यः-गाथा स्पष्ट है। पूर्व गाथा में चार निकायों का नाम निर्देश करके प्रकृत गाथा में क्रमशः उनके अंवान्तर भेदों की संख्या का उल्लेख किया गया है। भवनवासियों के दस, वाणव्यस्तरों के पाठ, ज्योतिषकों के पांच और वैमानिकों के दो भेद हैं। इन भेदों का नाम कधन गली गाथाओं में क्रमशः किया जायगा। मूल:-असुरा नाग सुवरणा, विज्जू अग्गी वियाहिंया ।
दीवोदहिदिसा वाया, थणिया भवनवासियो ॥ १६ ॥ छाया:-असुरा नागाः सुवर्णाः, विद्युनोऽयग्रो व्याहृताः।।
द्वीपा उदधयो दिशो वायवः, स्तानता भवनवासिनः ॥ १६ ॥ शब्दार्थ:-अवनवासी देवों के दस प्रकार यह हैं-(१) असुर (२) नाग (३) सुवर्ण (४)विद्युत् (५) अमि (६) द्वीप (७) उदधि (८) दिशा (६) वायु और (१०) स्तनित।
भाष्यः-सर्व प्रथम भवनदाली का नाम-निर्देश किया गया था अतएव यहां सव से पहले उसी के भेद बतलाये गये हैं। प्रत्येक नाम के साथ 'कुमार' शब्द का प्रयोग किया जाता है । यद्यपि देवों की उन्न अवस्थित रहती है, उनमें मनुष्यों एवं तिर्यञ्चों की भांति शैशव, बाल्य, कुमार, युवा तथा वुढापे का अवस्था भेद नहीं है, तथापि भवनवासी देवों का वेषभूषा, प्रायुध, सवारी और क्रीड़ा कूमारों के समान होती है श्रतएव उनके नामों के साथ 'कुमार' शब्द जोड़ा जाता है । इसलिए उनके नाम इस प्रकार हैं-(१) असुरकुमार (२) नागकुमार (३) सुवर्णकुमार (४) 'विद्युत्कुमार ( ५.) अग्निकुमार (६) द्वीपफुमार (७) उदधिकुमार (८) दिशाकुमार (६) वायुफुमार (१०) स्तनितकुमार। .
भवनवासियों में असुरकुमारों के भवन रतममा पृथ्वी के पंकबहुल भाग में हैं और शेष नव कुमारों के भवन खरपृथ्वी के ऊपर और नीचे के एक-एक हजार योजन भाग को छोड़ कर शेष चौदह हजार योजन के भाग में हैं।
अमुरकुमारों के भरनों की संख्या दक्षिण दिशा में चवालीस लाख है। इनके इन्द्र का नाम चमरेन्द्र है-यह इन देवों के अधिपति हैं । चमरेन्द्र के परिवार में ६४००० लामानिक देव, २५६००० यात्मरक्षक देव, द महिपी (पटरानियां) है ।