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देवगति का निरूपण
मूल:- देवा चउव्विहा वुत्ता, ते मे कित्तयत्रो सुप । भोमेज वाणमन्तर, जोइसवेमाणिया तहा ॥ १४ ॥
सत्तरहर्वा श्रध्याथ
छाया:-- देवाश्चतुर्विधा उक्ताः तान्मे कीर्तयतः शृणु ।
भीमेा वाणन्यन्तराः, ज्योतिषका वैमानिकास्तथा ॥ ११ ॥
शब्दार्थ:-- हे इन्द्रभूति ! देव चार प्रकार के कहे गये हैं । उनका वर्णन करते हुए मुझ से सुन । ( १ ) भोमेय-भवनवासी ( २ ) वाणव्यन्तर ( ३ ) ज्योतिष्क और ( ४ ) वैमानिक --- यह चार प्रकार के देव होते हैं ।
भाष्यः --- पहेल नरक गति का वर्णन किया गया है और नरक के कारणभूतं हिंसा आदि पापों के त्याग का उपदेश दिया गया है । जो सम्यग्दृष्टि उस उपदेश के अनुसार अनुष्ठान करते हैं, उन्हें कौन-सी गति प्राप्त होती है ? इस प्रकार की शंका उठना स्वाभाविक है । इस शंका का समाधान करने के लिए यहां देवगति का वर्णन किया गया है ।
अथवा बार गति रूप संसार में से मनुष्य गति और तिर्यञ्च गति तो प्रत्यक्ष से दृष्टिगोचर होती हैं, मगर नरक गति और देवगति का अल्पज्ञ जीवों को ज्ञान नहीं होता । इसलिए नरक यति का वर्णन करके अब अवशिष्ट रही देवगति का वर्णन यहां किया जाता &
“देवगतिनामकर्मोदये सत्यभ्यन्तरे हेतौ वाहाविभूतिविशेषात् ह्रीषाद्रिसमुद्रादिषु प्रदेशेषु यथेष्टं दीव्यन्ति - क्रीडाकिते देवाः ।'
श्रर्थात् देवगति नाम कर्म रूप अभ्यन्तर कारण के होने पर वाह्य विभूति की विशेषता से जो द्वीपों, पर्वतों एवं समुद्रों में इच्छानुसार कीड़ा करते हैं, वे देव कहलाते हैं । देवों के चार प्रधान निकाय हैं - ( १ ) सवनवासी ( २ ) वाणव्यन्तर ( ३ ) ज्योतिष्क और वैमानिक
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चारों निकायों के नाम अन्वर्थ हैं । 'भवनेषु वसन्तीत्येवंशीला भवन वासिनः * श्रर्थात् जिनका स्वभाव भवनों में निवास करना है वे भवन-वासी कहलाते हैं । 'विविघदेशान्तराणि येषां निवालास्ते व्यन्तराः' अर्थात् विविध देशों में निवास करने वाले व्यन्तर कहलाते हैं । 'ज्योतिःस्वभावत्वाज्ज्योतिष्काः ' अर्थात् प्रकाश-स्वभाव वाले होने के कारण ज्योतिष्क देव कहे जाते हैं ।
विशेषेणात्मस्थान् सुकृतिनों मानयन्तीति विद्यानानि । विमानेषु भवा वैमा निकाः” अर्थात जिनमें रहने वाले अपने-आपको पुण्यात्मा मानते हैं, उन्हें विमान कहते हैं और विमानों में उत्पन्न होने वाले या रहने वाले देव वैमानिक कहलाते हैं !
चारों जाति के देवों का वर्णन शास्त्रकार आगे स्वयं करेंगे !