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फँसकर उनके सुख के लिए नाना प्रकार का पाप करने में संकोच नहीं करते ।
कुछ ही काल अनन्तर पाप कर्म करने वाला अपने कुटुम्बियों को यहीं छोड़ कर अकेला ही परलोक की यात्रा करता है और कृत पापों के फल-स्वरूप नरक गति का अतिथि बनता है । पाप कर्म के द्वारा उपार्जित धन का भंडार यहीं रह जाता है। जिनके लिए धनोपार्जन किया था, वे कुठुम्बी उस समय तनिक भी सहायक नहीं होते । नरक की यातनाओं में वे जरा भी हिस्सा नहीं बंटाते । अपने पापों का फल केले कर्त्ता को ही भोगना पड़ता है ।
अतएव जो भव्य जीव नरक से बचना चाहते हैं, उन्हें कुमति का त्याग करना चाहिए और कुटुम्बीजनों के मोह के कारण पाप कर्म में प्रवृत्त होकर धनोपार्जन नहीं करना चाहिए | न्याय-नीति पूर्वक किया हुआ परिमित धनोपार्जन नरक का कारण नहीं है । ऐसा विचार कर अन्याय एवं अधर्म से विमुख होकर नरक गति से बचने का प्रयत्न करना चाहिए ।
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मूल :- एयाणि सोच्चा परगाणि धीरे,
सत्तरहवां अध्याय :
न हिंसए किंचण सव्वलोए ।
एतदिट्टी पर उ,
बुज्झिज्ज लोयस्स वसं न गच्छे ॥१३॥
छाया:- एतान् श्रुत्व नरकान् धीरः, न हिंस्यात् कञ्चन सर्वलोके । एकान्तदृष्टिरपरिग्रहस्तु, बुध्वा लोकस्य वशं न गच्छेत् ॥ १३ ॥
शब्दार्थः--शुद्ध सम्यक् दृष्टि वाले और ममत्व से रहित बुद्धिमान् पुरुष इन नरकों के स्वरूप को सुनकर, समस्त लोक में किसी भी जीव की हिंसा न करें । कर्म रूप लोक का स्वरूप समझकर उसके अधीन न होवे |
· भाष्यः - नरक के स्वरूप का वर्णन करके तथा नरक में होने वाली घोर वेदजाओं का कथन करके अव उसका उपसंहार करते हुए शास्त्रकार शिक्षा देते हैं
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जिन्हें तीव्र पुण्य के उदय से शुद्ध सम्यक्त्व की प्राप्ति हो गई है और साथ ही जिनकी ममता क्षीण हो गई है, ऐसे ज्ञानवान् पुरुषों का यह कर्त्तव्य है कि वे नरक का दुःखपूर्ण कथन सुन कर धन आदि के लिए अथवा इन्द्रियलोलुपता से प्रेरित हो कर किसी भी प्राणी की हिंसा न करें । कर्मों का यथार्थ स्वरूप समझ कर --- ~~ उनके विपाक की दारुणता का अवधारण करके कर्मों के वश न हो जावें ।
अनेक लोग यह आशंका करते हैं कि नरक का घृणाजनक, भयंकर और वीभत्स वर्णन करने की क्या आवश्यकता है ? इस प्रकार का वर्णन करके लोगों में मानसिक दुर्बलता क्यों उत्पन्न की जाती है ? नरक वास्तव में है या नहीं, इस यात का क्या भरोसा है ?.
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