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श्रावश्यक कृत्य लाता है। इस स्थिति में, ईश्वर के गुणों का कीर्तन करना आत्मा के वास्तविक और स्वाभाविक गुणों का कीर्तन करना ही है। प्रश्ने श्रेष्ठ गुणों का स्मरण करने से उन गुणों के प्रति आकर्षण बढ़ता है और उन गुणों को श्राच्छादित करने वाली प्रवृत्तियों से घुणा उत्पन्न होती है। ऐसा होने पर आचरण में पवित्रता श्राती हैं प्रात्मा स्वयं परमात्मा बनने के लिए अग्रसर होता है । इस प्रकार ईश्वर का स्मरण एवं कीर्तन श्रात्मा को पवित्रता की ओर प्रयाण करने की प्रेरणा करता है, अतएव उसे जीवन्न शुद्धि का कारण माना गया है।
जीवन-शुद्धि का तीसरा तत्व है गुणवान पुल्पों-गुरुजनों को वंदना-नमस्कार श्रादि नम्रतापूर्ण व्यवहार से यथोचित श्रादर प्रदान करना । गुणवान् गुरुओं को वन्दना नमस्कार करने का प्रयोजन गुणों की प्राप्ति, अवगुणों के प्रति त्याग का भाक और गुरु प्रसाद है।
चौथा जीवनशोधक उपाय है-स्वलित की निन्दा करना कोई पुरुष कितना ही सावधान रहे, क्रिया करते समय कितनी ही सावधानी करते, फिर भी मन से. वचन से या काय से स्खलना होना अनिवार्य है। संयम का अभ्यास करने वाला कभी न कभी अपने पद से, अपने कर्त्तव्य से, च्युत हो ही जाता है । मगर. च्युत होना जितना वरा नहीं है उतना उसकी निन्दा-गहों न करना बुरा है । स्खलना होते ही अगर आत्मसाक्षी से या गुरुसाक्षी से उसकी निन्दा की जाय, उसके लिए पश्चाचाप प्रकट किया जाय तो स्खलना का शीघ्र संशोधन हो जाता है । खलना की निंदा को आलोचना या 'पालोयगा' कहते हैं। पालोचना करने से पाप के प्रति घृणा का भाव उत्पन्न होता है और चित्त को आश्वासन मिलता है।
जीवन शुद्धि के लिए पांचवां उपाय व्रणचिकित्सा' है । व्रण का अर्थ है--
से शरीर में घाव हो जाने पर उसकी चिकित्सा की जाती है, उसी प्रकार . प्रमाद श्रादि से प्राचरित दोपों का प्रायश्चित्त करना आस्मिक : व्रणचिकित्सा' है। प्रायश्चित्त का वर्णन पहले किया जा चुका है।
उन पांचों उपायों का अवलम्बन करने से छठा उपाय गुणधारणा-स्वयं प्रादु. भंत हो जाता है। लद्गुणों का स्वरूप लमंझना, गुणीजनों की संगति करना, गुण धारण करने का संकल्प करना, गुण के विरोधी दापों के प्रति अल्ची स्थिर करना त्यादि प्रकार से गणों को धारण किया जाता है । यहां संयम रूप गुण को जीवन शुद्धि का कारण बतलाया गया है। संयम ही समस्त गुणों से मूर्धाभिषिक गुण है।
इन छह उपायों के अवलम्बन से प्रात्मा, शुद्ध, निष्कलंक, निर्विकार, निरंजन अवस्था प्राप्त करता है। अतएव क्या साधु पोर क्या धारक, सभी को इन गणों का यथाशक्ति धारण-पालन करना चाहिए। मूल:-जो समो सव्व भूएसु, तसेसु थावरे सु य ।
तस्स सामाइयं होइ, इइ केवलि भासियं ॥ १६ ॥