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नरक-स्वर्ग-निरूपण ने की जाने वाली संकल्पना हिंसा का फल नरक है। श्रारम्भजा हिंसा में हिंसात्मक भावना न होने से उसे तीव्रभाव से की गई हिंसा नहीं कहा जा सकता।
"रण लिक्वद सेयवियस्ल किंचि' इस पद से उल्ल प्राशय की अधिक पुष्टि होती है। तात्पर्य यह है कि नरक का अधिकारी वह होता है जो संयम का किंचित् भीएक देश भी पालन नहीं करता । जो पुरुष किसी वस्तु का भी त्याग नहीं करता, त्रतएव जो सर्वथा संयमी होता है वही नरक का पात्र होता है। श्रावक देश संयम का यालन करता है, अतएव वह सर्वथा असंयमी नहीं कहा जा सकता। यही कारण है. कि भार समजा हिंसा करने पर भी, परिणामों में लौस्यता, दयालुता, श्रादि सद्गुणो के कारण वह नरक में नहीं जाता है।
इस कथन ले त्याग की महिमा स्पष्ट हो जाती है। त्यागी पुरुष के लिए नरक का द्वार बन्द हो जाता है। अतएव प्रत्येक विवेकशील पुरुष को अपनी शक्ति एवं. शरिस्थिति के अनुसार पाए का त्याग वश्य करना चाहिए।
इस गाथा से यह भी प्रकट है कि बुद्धिमान पुरुष को अपने ही सुख के लिए अन्य प्राणियों को कष्ट नहीं पहुंचाना चाहिए। जो लोग अपना जीवन अत्यन्त विलासितापूर्ण, असंयममय और असन्तोषशील बनाते हैं. वे अपने सुख के लिए तीन श्रारम्भ और अपरिमित परिग्रह करके अन्य प्राणियों की पीड़ा की परवाह नहीं करते। उन्हें शास्त्रकार के इस कथन पर ध्यान देना चाहिए । अल्पकालीन और कल्पित सख के लिए दीर्घकालीन छोरतर वेदनाओं को श्रापत्रण देना बुद्धिमत्ता नहीं है। अतएक नरक के स्वरूप को लमझकर पाप से बचने का पूर्ण प्रयत्न करना चाहिए । मूलः-छिदंति बालस्स खुरेण नक्कं,
उट्टे विछि दति दुवे वि करणे । जिन्भं विणिक्कस्स विहत्थिमित्तं,
तिक्वाहिस्लाभितावयंति ॥ ५ ॥ छाया:-छिन्दन्ति वालस्य पुरेण नासिकान्, श्रोष्ठावपि छिन्दन्ति द्वापि करें ।
जिह्वां विनिप्कास्य वितस्तिमात्रं, तिक्ष्णाभिः शूलाभिरभितापयन्ति ॥ ५॥ शब्दार्थ:--परमाधार्मिक देवता विवेकहीन नारकियों की नाक काट लेते हैं, दोनों मोठ और दोनों कान काट लेते हैं और बिलात भर जीभ बाहर निकालकर उसमें ताले शूल चुभाकर पीड़ा पहुँचाते हैं।
भाष्यः-नरक गति के कारणों का निरूपण करने के पश्चात् यहां श्रासुरी वेदना का कथन किया गया है। परमाधार्मिक जाति के असुर नरक में नारकियों को भीपण वेदना पहुंचाते हैं। यह परमाधार्मिक पन्द्रह प्रकार के हैं । उनके नाम एस