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सोलहवां अध्याय
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शब्दार्थ:-जो पुरुष कुसंगति करता है वह हास्य आदि में आसक्त होकर हिंसा करने में ही आनन्द मानता है । वह अन्य जीवों के साथ वैर बढ़ाता है, अतएव अज्ञानी पुरुषों की संगति नहीं करनी चाहिए ।
भाष्यः- सत्संगति से होने वाले लाभों का उल्लेख करके यहां अज्ञान पुरुषों की कुसंगति से होने वाली हानि का कथन किया गया हैं ।
हिंसा आदि प्रकर्त्तव्य कार्यों में दत्तचित्त रहने वाले, इन्द्रियों के क्रीतदास विषयलोलुप, धर्म मार्ग से प्रतिकूल चलने वाले पुरुष अज्ञानी कहलाते हैं । ऐसे पुरुषों का संसर्ग करने वाला भद्र परिणामी मनुष्य भी उन्हीं जैसा बन जाता है | वह हिंसा करता है और हिंसा करने में श्रानन्द का अनुभव करता है । अपने मनोरंजन के लिए, बिना किसी प्रयोजन के ही, प्राणियों का घात करने में उसे संकोच नहीं होता ।
इस प्रकार हिंसा करके, वह जिन प्राणियों का हनन करता है, उनके साथ वैरानुबंधी कर्म बांधता है । इस कर्म के उदय से उसे भव-भवान्तर मैं दुःख क भागी होना पड़ता है । वैर की परस्परा अनेक भव पर्यन्त चालू रहती है । अतएव अज्ञान पुरुषों की संगति का त्याग करना चाहिए ।
मूलः - आवस्सयं
वस्तं कणिज्जं, gasो विसोही य । छक्कवग्गो,
अज्झयण
नाओ आराहणामग्गो ॥ १७ ॥
छाया:- शावश्यकमवश्यं करणीयम्, ध्रुवनिग्रहः विशोधितम् । श्रध्ययनपट्कवर्गः ज्ञेय आराधनामार्गः ॥ १७ ॥
शब्दार्थ : - इन्द्रियों का निग्रह करने वाला, आत्मा को विशेष रूप से शुद्ध करने वाला, न्याय के कांटे के समान, जिससे वीतराग के वचनों का पालन होता है ऐसे, मोक्ष मार्ग रूप, छह वर्ग अध्ययन जिसके पढ़ने के हैं ऐसा, आवश्यक अवश्य करने योग्य है ।
भाग्यः - शास्त्रकार ने यहां पर आवश्यक कृत्य को अवश्य करने का विधान किया है । आवश्यक को श्राराधना का मार्ग, इन्द्रिय निग्रह करने का साधन और आत्मा को विशुद्ध करने वाला निरूपण किया गया है। श्रावश्यक क्रिया का निरूपण करने वाला आवश्यक सूत्र छह अध्ययनों में विभत है, क्योंकि श्रावश्यक के विभाग पद ६ ।
श्रावश्यक के छेद विभाग यह हैं - ( १ ) सामायिक ( २ ) चतुर्विंशति स्तत्र ( ३ ) बन्दना ( ४ ) प्रतिक्रमण ( ४ ) कायोत्सर्ग और ( ६ ) प्रत्याख्यना ।